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उन्होंने मनोयोग पूर्वक अव्ययन किया। उन पुस्तकों में 'पंजीकरण', 'मणिरत्नमाला', 'योगवासिष्ठिका', मुमुक्षुप्रकरण' एवं 'हरिभद्रसूरि का 'पडदर्शन समुच्चय' प्रमुख थीं । अपरिग्रहशीलता :
सामाजिक सन्दर्भ
बापूजी परिग्रहणीलता की प्रतिमूर्ति थे । जैन धर्म के अनुसार वीतरागी श्रीर परिग्रही व्यक्ति ही मोक्ष का अविकारी होता है । वापू इसे अच्छी तरह जानते थे । इस सन्दर्भ में उन्होंने लिखा है कि वाह्याडम्बर से मनुष्य वीतरागी नहीं हो सकता | शुद्ध वीतरागता में श्रात्मा की निर्मलता है । यह अनेक जन्मों के प्रयत्न ने मिल सकती है । रोगों को निकालने का प्रयत्न करने वाला यह जानता है कि रोग रहित होना कितना कठिन है । मोक्ष की प्रथम सीढ़ी वीतरागता है । जव तक जगत की एक भी वस्तु मन में रमी है तब तक मोक्ष की बात कैसे अच्छी लग सकती है अथवा लगती भी हो तो केवल कानों को । ठीक वैसे ही जैसे कि हमें अर्थ के समझे बिना किसी संगीत का केवल स्वर ही ग्रच्छा लगता है । इस प्रकार की केवल कर्णप्रिय कोड़ा में व्यर्थ समय निकल जाता है और मोक्ष का अनुकूल ग्राचरण-पथ दूर होता चला जाता है । वस्तुत: ग्रान्तरिक वैराग्य के विना मोक्ष की लगन नहीं होती । इस वैराग्य की पूर्व दशा से बापू पूर्ण प्रभावित रहे है ।
सर्वधर्म समभाव :
बापू जी को सर्वधर्मसमभावी बनने का वातावरण वाल्यावस्था में ही मिल चुका था । रायचन्द भाई से घनिष्ठता होने पर उनके विचारों में और भी दृढ़ता आई । अपनी 'ग्रात्मकथा' में उन्होंने लिखा है- "शंकर हो या विष्णु, ब्रह्मा हो या इन्द्र, बुद्ध हो या सिह, मेरा सिर तो उसी के आगे झुकेगा जो रागद्वेप रहित हो, जिसने काम को जीता हो और जो ग्रहसा और प्रेम की प्रतिमा हो ।" गांधीजी की यह सर्वधर्मसमभाविता निश्चित ही जैनवर्म की देन है । जैनधर्म में रागादिक ग्रप्टादश दोपों से विरहित व्यक्ति वन्दनीय होता है | इस प्रसंग में जैनाचार्य हेमचन्द्र का श्लोक स्मरण याता है जिसमें उन्होंने समन्वयात्मक दृष्टि से मात्र वीतरागी और तर्कसिद्ध भापी को नमन करने की प्रतिज्ञा की है चाहे वह तीर्थंकर हो या ग्रन्य कोई विचारक
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः प्रतिग्रहः ||
धर्म की व्याख्या :
धर्म शब्द के अनेक अर्थ हैं । जैन धर्म में उन अर्थो में से कर्तव्य रूप अर्थ का अधिक विश्लेपण किया गया है। गांधीजी ने रायचन्द भाई के माध्यम से धर्म को इसी रूप में समझा था । उन्होंने 'ग्रात्म कथा' में इस तथ्य को स्पष्टतः स्वीकार किया है ।
रायचन्द भाई ने धर्म की व्याख्या संकीर्णता के दायरे से हटकर सिखाई थी जिसका अनुकरण बापू ने अन्त तक किया । इस व्याख्या के अनुसार धर्म का अर्थ मत-मतान्तर नहीं । धर्म का अर्थ शास्त्रों के नाम से कही जाने वाली पुस्तकों का पढ़ जाना, कण्ठस्थ कर लेना अथवा उनमें जो कुछ कहा गया है, उसे मानना भी नही है । धर्म तो ग्रात्मा