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समता-दर्शन : आधुनिक परिप्रेक्ष्य में । • आचार्य श्री नानालालजी म० सा०
समता-दर्शन का लक्ष्य :
समता मानव जीवन एवं मानव-समाज का शाश्वत दर्शन है। आध्यात्मिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि सभी क्षेत्रों का लक्ष्य समता है क्योंकि समता मानवमन के मूल में है। इसी कारण कृत्रिम विषमता की समाप्ति और समता की प्राप्ति सभी को अभीप्ट है। जिस प्रकार आत्माएँ मूल में समान हैं किन्तु कर्मों का मैल उनमें विभेद पैदा करता है और जिन्हें संयम और नियम द्वारा समान बनाया जा सकता है, उसी प्रकार समग्न मानव-समाज में भी स्वस्थ नियम-प्रणाली एवं सुदृढ़ संयम की सहायता से समाजगत समता का प्रसारण किया जा सकता है।
आज जितनी अधिक विपमता है, समता की मांग भी उतनी ही अधिक गहरी है। वर्तमान विपमता के मूल में सत्ता व सम्पत्ति पर व्यक्तिगत या दलगत लिप्सा की प्रवलता ही विशेपरूप से कारणभूत है और यही कारण सच्ची मानवता के विकास में वाधक है। समता ही इसका स्थायी व सर्वजन हितकारी निराकरण है।
समता दर्शन का लक्ष्य है कि समता, विचार में हो, दृष्टि में हो, वाणी में हो तथा आचरण के प्रत्येक चरण में हो। समता, मनुष्य के मन में है तो समाज के जीवन में भी, समता भावना की गहराइयों में है तो साधना की ऊंचाइयों में भी । विकासमान समता-दर्शन :
मानव-जीवन गतिशील है। उसके मस्तिष्क में नये २ विचारों का उदय होता है। ये विचार प्रकाशित होकर अन्य विचारों को आन्दोलित करते हैं। फलस्वरूप समाज में विचारों के आदान-प्रदान एवं संघर्ष समन्वय का क्रम चलता है। इसी विचार मन्थन में से विचार-नवनीत निकालने का कार्य युग-पुरुष किया करते हैं।
कहा जाता है कि समय बलवान होता है। यह सही है कि समय का वल अधिकांशतः लोगों को अपने प्रवाह में बहाता है, किन्तु समय को अपने पीछे करने वाले ये ही युग-पुरुष होते हैं जो युगानुकूल वाणी का उद्घोष करके समय के चक्र को दिशा-दान करते हैं। इन्हीं युगपुरुपों एवं विचारकों के आत्म-दर्शन से समता-दर्शन का विकास होता आया है। इस विकास पर महापुरुषों के चिंतन की छाप भी है तो समय-प्रवाह की छाप भी। और जव आज हम समता-दर्शन पर विचार करें तो यह ध्यान रखने के साथ कि अतीत में महापुरुपों ने इसके सम्बन्ध में अपना विचार-सार क्या दिया है-यह भी ध्यान रखने की आवश्यकता