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जीवन, व्यक्तित्व और विचार:
वापिस लौट जाना । साधारणतः हमारी चेतना प्रक्रमण है । प्रतिक्रमण का अर्थ है वापिस लौट आना सारी चेतना को वापिस समेट लेना । सूर्य शाम को अपनी किरणों का जाल समेट लेता है, ऐसे ही अपनी फैली चेतना को मित्र के पास से, शत्रु के पास से, पत्नी के पास से, वेटे के पास से, मकान से और धन से वापिस बुला लेना है। जहां-जहां हमारी चेतना ने खुटियां गाड़ दी हैं थोर फैल गयी है, उस सारे फैलाव को वापिस बुला लेना है । जाना है श्राक्रमण, लौट आना है प्रतिक्रमण | जहां-जहाँ चेतना गयी है, वहां-वहां से उसे वापिस पुकार लेना कि 'ग्रा जानो' ।
ध्यान : : पर केन्द्रित, प्रक्रिया मात्र :
ध्यान का पहला चरण है प्रतिक्रमण और सामायिक है दूसरा चरण । सामायिक ध्यान से भी अद्भुत शब्द है । महावीर ने जो इस शब्द का उपयोग किया है, वह व्यान से बेहतर है । ध्यान शब्द में कहीं दूसरा छिपा हुआ है । जैसे कहते हैं, 'किसके ध्यान में' किस पर ध्यान करें, कहां लगायें। ध्यान शब्द किसी-न-किसी में परकेन्द्रित है । उससे सवाल हुग्रा है, 'किस का ध्यान ?'
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सामायिक : श्रात्मा में होना :
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सामायिक को महावीर ने बिलकुल मुक्त कर दिया है। समय का मतलब होता आत्मा और सामायिक का मतलव आत्मा में होना । प्रतिक्रमण है पहला हिस्सा कि दूसरे से लोट श्राश्रो, सामायिक है दूसरा हिस्सा अपने में हो ग्रायो । और जब तक दूसरे से न लौटोगे, तव तक अपने में होगे कैसे ? इसलिए पहली सीढ़ी प्रतिक्रमण और दूसरी सीढ़ी सामायिक है । तो प्रतिक्रमण सिर्फ प्रक्रिया है, स्वभाव नहीं । इसीलिए कोई प्रतिकमरण में ह । रुकना चाहे तो वह ना समझी में है | चेतना इतनी शीघ्रता से आती और इतनी शीघ्रता से लौट जाती है कि पता ही नहीं चलता । एक दफा सोचती है कि कहां मकान ? क्या मेरा ? लोटती है एक क्षरण को । लेकिन यहां ठहरने को जगह नहीं पाती, पुनः वहीं लोट जाती है । दूसरा सूत्र है, सामायिक । महावीर का जो केन्द्र है वह सामायिक है । सामायिक बड़ा अद्भुत शब्द है । दुनिया में बहुत शब्द लोगों ने उपयोग किये हैं, लेकिन इससे अद्भुत शब्द का उपयोग नहीं हो सका कहीं भी । इस प्रकार, समय का अर्थ है आत्मा, सामायिक का अर्थ है आत्मा में होना ।
विराट् जीवन को श्रोर :
महावीर भली भांति जानते हैं कि यह शरीर भी तो कई बार बदला जाता लेकिन एक प्रोर काया है जो कभी नहीं बदलती, बस एक ही वार खत्म होती है, उस कायाको पिघलाने में लगा हुग्रा जो श्रम है वहीं तपश्चर्या है और उस काया को पिघलने की जो प्रक्रिया हैं वही साक्षीभाव, सामायिक या ध्यान है । वह स्मरण में था जाए और उसके प्रयोग से गुजर जाएं, तो फिर कोई पुनर्जन्म नहीं है । 'पुनर्जन्म रहेगा, सदा रहेगा, अगर हम कुछ न करें । लेकिन ऐसा हो सकता है कि पुनर्जन्म न हो। हम विराट् जीवन के साथ एक हो जाएं। ऐसा नहीं कि हम खत्म हो जाते हैं। बस ऐसा ही हो जाते हैं, जैसे बूंद सागर हो जाती हैं। वह मिटती नहीं, लेकिन मिट भी जाती है, बूंद की तरह