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परिचर्चा
आवश्यकता नहीं रही क्योंकि केवल्य के निकट पहुंची हुई आत्मा स्वयं से संघर्ष के स्टेज को तो बहत पहले पार कर चुकी होती है। हो सकता है उन्होंने वारणी के द्वारा कोई उपदेश भी न दिया हो क्योंकि हर उपदेश की प्रवृत्ति के पीछे अहंकार खड़ा रहता है । उपदेशक का अर्थ होता है दूसरे को गलत समझना, खुद को सही समझना और दूसरे को अपने मार्ग पर चलाने का प्रयत्न करना । यह सब अहंकार है, जिसका महावीर में लवलेश भी नहीं हो सकता, और न कोई स्याद्वादी किन्ही मूल्यों का आग्रह ही कर सकता है। जिस तरह सूर्य के उदय होते ही सारा संसार क्रियाशील हो उठता है और कर्म की एक धारासी स्वतः प्रवाहित होने लगती है उसी प्रकार विना कुछ कहे महावीर की उपस्थिति ही शायद लोगों में कल्याणकारी भावनाएं जगाने में समर्थ थी। उनके उपदेश लोगों को 'टेलीपैथी' के द्वारा आत्म प्रेरणा के रूप में ही प्राप्त हुए होगे। फिर भी, सामान्यतया यह माना जाता है कि महावीर ने जीवन में जिन मूल्यों को प्रतिष्ठित किया उनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण मूल्य ये है
'धम्मो ममलमुक्किम, अहिंसा संजमो तवो' अर्थात् अहिंसा संयम और तपल्प धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है ।
२. भगवान महावीर द्वारा प्रतिष्ठित मूल्यों को पिछले २५०० वर्षों में बड़ी दुर्गति हुई है। उनका हर मूल्य एक ढकोसलासा बन गया है। अहिंसा चीटियों को शक्कर और कबूतरों को ज्वार डालने तक ही सीमित रह गई है ब्रह्मचर्य की महिमा गाते हुए भी जनसंख्या निरन्तर बढ़ जाती रही है। जीवन की कठिन परिस्थितियों ने किसी न किसी प्रकार की चोरी करने के लिए मनुप्य को वाध्य कर दिया है। समाज में परिग्रह के प्रति ग्रासक्ति बढ़ती जा रही है । इन सब विकृतियों के बीच में 'सत्य' की खोज मुश्किल हो गई है। और महावीर द्वारा स्थापित आध्यात्मिक मूल्य पीछे छूट गये हैं । इसका एक मात्र कारण है आध्यात्मिक जीवन की ओर आज के अतृप्त और कुंठाग्रस्त मनुप्य का कोई आकर्पण न होना और धर्म का रूढ़ियों में बंध जाना ।
३. मार्क्स, गांधी, आइंस्टीन आदि चिन्तक भौतिक जीवन को लक्ष्य बना कर चले थे जबकि महावीर का लक्ष्य आध्यात्मिक था, अतः इन में दिखाई देने वाला साम्य लक्ष्य की भिन्नता के कारण वास्तविक साम्य नहीं। मार्क्स आर्थिक क्षेत्र का चिन्तक है । महावीर के अपरिग्रह से उसका साम्य दिखता है परन्तु महावीर की अपरिग्रह की सीमा तक जाने के लिए मार्क्स कभी तैयार न होगा । यदि एक दूसरे का शोषण किए विना संसार के सारे प्राणी लखपती वन सकते हों तो मार्स को कोई आपत्ति नहीं होगी पर महावीर इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे । अतः दोनों में बहुत अन्तर है।
गांधी ने भी सत्य और अहिंसा के प्रयोग राजनीति में किए । वे आध्यात्मिक व्यक्ति अवश्य थे पर उनका लक्ष्य भौतिक जीवन की उन्नति ही था अतः उनकी अहिंसा भी महावीर को अहिंसा से बहुत भिन्न है । महावीर की अहिंसा की जो ऊपर व्याख्या की गई है, उसके अनुसार 'सत्याग्रह' भी अहिंसक आंदोलन नहीं माना जा सकता क्योंकि वह भी