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परिचर्चा
पैठने की अोर यथायोग्य यथास्थान विवेक पूर्वक उपयोग की । आज के बदलते संदर्भो में यदि समाज एवं राष्ट्र में संव्याप्त विपमताओं पर दृष्टिपात करें तो जात होगा कि प्राथिक असमानता राष्ट्र को वैषम्य ज्वालाओं में झुलसा रही है। ऐसी स्थिति में यदि महावीर की अनेकान्त पोपित अपरिग्रह वृत्ति का राष्ट्र व्यापी आन्दोलन प्रारम्भ हो तो निश्चित ही विश्व-मानव को शान्ति का आधार हस्तगत हो सकता है ।
वैसे दर्शन-विचार के क्षेत्र में अनेकान्त, प्राचार में अहिंसा, व्यवहार में अपरिग्रह दृष्टि एवं राष्ट्र-निर्माण में ग्राम धर्म, नगर धर्म एवं राष्ट्र धर्म की विचार सरणि राष्ट्र के हर व्यक्ति एवं प्रमुख तौर पर राष्ट्र नेताओं का व्यवहार क्षेत्र बने तो महावीर द्वारा प्रतिष्ठापित ये तीनों मूल्य समाज-रचना में अपना अमूल्य योग दे सकते हैं।
५. चूंकि मैं महावीर का अर्थात् वीतरागता का अनन्य उपासक हूं अतः व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व के लिए वीतरागता किंवा परम समता का ही उबोवन दे सकता हूँ।
मेरी दृष्टि में परिनिर्वाणोत्सव पर उस परम ज्योति पुञ्ज युगपुरुप के अनुकूल कुछ करना है तो वह समता-दर्शन की पुनीत छाया-तले ही कर सकेंगे। अतः मैं समाज के प्रत्येक अंग से आह्वान करना चाहूंगा कि वह किसी भी क्षेत्र में रहता हया नवीन समाजरचना के लिए समता-दर्शन का व्यापक एवं संयमीय स्वाचरण पूर्वक प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ करें।
समता-दर्शन की विस्तृत युगानुकूल व्यावहारिक रूप रेखा "समता-दर्शन और व्यवहार" नामक ग्रन्थ में प्रस्तुत की गई है, जिस पर प्रत्येक तत्त्व चिन्तक गहराई से चिन्तन कर विपमता का स्थायी समाधान प्राप्त कर सकता है। समतामय समाज-रचना से विश्वमानव, शान्ति की श्वास ले सकता है, ऐसा मेरा अटल विश्वास है।
(२) श्री रिषभदास रांका:
१. इस प्रश्न को इस तरह से रखना अधिक उपयुक्त होगा कि भगवान महावीर ने किन मूल्यों को प्रस्थापित किया ? उनके जीवन का उद्देश्य-समता दिखाई देता है । वे स्वयं संबुद्ध थे। किसी गुरु या परम्परा द्वारा प्रभावित हो, ऐसा नहीं दिखाई देता । उन्होंने सहजभाव से मानवी प्रेरणा को ध्यान में लेकर उसका समाधान ढूढ़ने का प्रयत्न किया और समाधान ढूंढने के लिए दीर्घ साधना अपनाई और समाधान प्राप्त होने पर अपने प्रथम उपदेश में जो कुछ कहा उससे स्पष्ट होता है कि उन्होंने सव जीवों के प्रति समता रखने की बात पर ही अधिक बल दिया। जो वात हमको अप्रिय लगे वह दूसरों को भी अप्रिय ही लगेगी इसलिए सबके साथ आत्मवत् संयम का व्यवहार करने को महावीर ने अपने उपदेशों में प्रथम स्थान दिया ।
__ . उनका कहना है कि प्रत्येक जीव में समान रूप से सुख दुःख की अनुभूति ही नहीं है, वरन् विकास की क्षमता भी समान रूप से है । सव जीवों के प्रति प्रात्मवत् व्यवहार के