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भाषाओं का प्रश्न : महावीर का दृष्टिकोण
श्री माईदयाल
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भाषाओं का प्रश्न :
भाषात्रों का प्रश्न इतना जटिल और पेचीदा पहले कभी नहीं था, जितना वह श्राज के युग में है । प्राचीन, मध्यकाल व आधुनिक काल की उन्नीसवीं शताब्दी की तो बात ही दूसरी है, पिछले पचास-साठ वर्षो में ही संसार के बड़े छोटे देशों में तो राज-व्यवस्था, शासन प्रणाली, ग्रर्थ-व्यवस्था, समाज व्यवस्था, विज्ञान, शिल्प विज्ञान ( टेक्नोलाजी ) और सैनिक विज्ञान (मिलिट्री साइन्स) आदि में महान परिवर्तन हुए हैं । ग्राज यातायात और संचार साधनों से संसार के देश इतने समीप आ गए हैं कि दुनिया बहुत छोटी-सी वन गई है । अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का क्षेत्र इतना विशाल हो गया है कि यदि किसी बड़े या महत्त्वपूर्ण देश में कोई घटना होती है, तो उस का ग्रास-पास के देशों पर विशेषतया, व सव देशों पर साधारणतया प्रभाव पड़े विना नहीं रह सकता । और अब तो श्रणुशक्ति, राकेटों व ग्रन्तरिक्ष यात्रा आदि के कारण जमाने की चिन्तनधारा ही वदल गयी है । भविष्य में इसका क्या परिणाम होगा, यह वताना कठिन है ।
इन सव परिवर्तनों के कारण मानव जाति की विचारधारा, रहन-सहन व सभ्यता आदि में तो क्रान्ति सी श्रा गयी है । भापाएं भी उसके प्रभाव से बच नहीं सकी हैं । भापा शास्त्रियों का मत है कि भाषा एक स्थितिपालक ( Conservative ) विषय है, उसमें परिवर्तन बड़े धीरे-धीरे होता है । पर उस प्रभाव से वह देर तक नहीं बच सकती । आज संसार की सभी विकसित व विकासशील भाषाओं पर उसका प्रभाव पड़ रहा है | भाषा प्रजित सम्पत्ति है :
प्रत्येक व्यक्ति अपनी मां, परिवार या अपनी संगति में आने वाले व्यक्तियों से अन्य परम्परागत सम्पत्तियों के समान भाषा को भी प्राप्त करता है । हर एक व्यक्ति, समाज या राष्ट्र को अपनी भाषा से मोह होता है । भाषा एक अर्जित सम्पत्ति भी है । ग्रर्जन से परम्परागत भाषा का परिमार्जन और मातृभाषा का क्षेत्र विस्तार होता है । वह दुसरी बोलियों और भापात्रों के शब्द ग्रहण करती है । भाषा एक सामाजिक वस्तु है, व्यक्तिगत नहीं | वह किसी एक व्यक्ति या कुछ लोगों के द्वारा नहीं बनायी जाती । विद्वान्, व्यापारी, किसान, मजदूर, नर-नारी और भिन्न-भिन्न व्यवसायों को करने वाले आदि उसे बढ़ाते रहते