________________
भगवान् महावीर की प्रासंगिकता
२८६
मानता है। जवकि कौल-कापालिक-शाक्त और वाममार्गी सिद्धों में, विद्रोह उच्छंखल प्रकार का है। दोनों में सामाजिक मूल्य समान हैं किन्तु ‘पहुंच' के मार्ग भिन्न-भिन्न हैं। दोनों, मानव एकता के समर्थक हैं किन्तु बुद्ध और महावीर जहां परमध्यानी हैं वहां तांत्रिक परम्परा के योगी पदार्थ मात्र को शिव मानकर उसका भोग करते हैं और आत्मदमन के मार्ग से प्राप्त होने वाली 'सिद्धि' (मानवीय उत्कृष्टता) भोग के मार्ग से प्राप्त करके दिखाते हैं । बौद्ध, जैन सिद्धों तथा हिन्दू शाक्तों-शैवों ने युद्ध को भी एक अनुभव के रूप में लिया और शताब्दियों तक योगियों-साधकों की श्रेणी परपीड़कों से टकराती रही और सर्वदा आम जनता का अनिवार्य अंश बन कर रही । वृत्तिनिरोधक (महावीर, बुद्ध आदि) योगियों और वृत्तिभोगी योगियों में यह साधनात्मक अंतर होने पर भी अपने सामाजिक अभिप्रायों में वे मिलकर 'भारतीय विद्रोह' को निरन्तरता देते है । वे सवर्णों की मानमर्यादा, मूल्य, विश्वास, रीति-रिवाज, आपसी व्यवहार-यह सब छोड़ने के लिए कहते है । संघ बल से अखाड़ों के तेवरों से स्थापित व्यवस्था से भिन्न तौर-तरीकों की स्थापना के कार्य में सभी ने योगदान किया। मार्गों और रीतियों की भिन्नता, जड़ता की सीमा तक पहुंचने पर भी, सामाजिक संकटों में योगियों ने, व्यवस्था समर्थक ब्राह्मणों की तुलना में अधिक काम किया। वे विरोध की अग्नि को प्रज्वलित करते रहते थे ।
खेद यह है कि 'संघ' जिसका रूप कुल मिलाकर जनोन्मुख था, क्रमशः सम्प्रदाय और जाति में परिवर्तित हो गया। कालान्तर में बौद्ध और जैन समाज सवर्णों में शामिल कर लिए गए और वे व्यापक हिन्दू समाज के अंग बन गए। सवर्ण व्यवस्था ने अपने लचीलेपन से विद्रोह को असफल कर दिया । तुलसीदास ने जनविमुख और आडम्बरी शूद्रविद्रोह का मजाक उड़ाया 'दम्भिन निजमत कलपिकरी प्रगट कीन्ह बहुपंथ'। यदि व्रात्यों, मुनियों और योगियों का ऐतिहासिक आंदोलन सफल हो जाता तो तुलसीदास यह वात हरगिज नहीं कह सकते थे। तुलसीदास ने दलित लोगों के विद्रोह का अंतविरोध देख लिया था । साम्प्रदायिक दम्भ ने महात्माओं को कैद कर लिया और लाभ सिर्फ यह हुआ कि महात्मा के नाम पर जातियों को तरक्की दे दी गई। कोरियों को कवीरदास कह दिया, चमार को रैदास ।
महावीर की असम्पृक्तता :
स्वातंत्र्योत्तर अाधुनिक भारत में विचारों के साथ 'संस्कारी' समाज साथ नहीं चल पाता। भारतीय संविधान अपने इरादों में एक सभ्य और मानवीय समाज की संरचना का पक्षधर है। वह अपने सामाजिक लक्ष्यों में, फ्रांस की राज्य क्रान्ति के नारों को अपनाता है पर समाज के ढांचे में, कोई विशेप अंतर नहीं आया। हजार वर्षों से संत्रस्त स्थितियों में अपनी पहचान और अस्मिता वचाए रखने के लिए यहां का समाज पृथक्ताओं की परम्परा के साथ नत्थी रहा है क्योंकि पृथक्ताओं को ही वह धर्म मानने लगता है। पर धर्म और दूसरों से भिन्नता का गडमगड्ड गणित, महावीर के विचारों, व्यवहारों में नहीं है। महावीर कहीं भी सम्पृक्त नहीं थे । समाधि में तो दिक्कालातीत स्थिति रहती है। अतः उसे छोड़कर वे कहीं 'साम्प्रदायिक व्यक्ति' नहीं लगते । वे उच्चतर कोटि की चित्तस्थिति में रहकर भव