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भगवान् महावीर की प्रासंगकिता
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हीनता और शोपरण पर आधारित है । इस देश में, पुरोहितों, सत्ताधीशों, क्षत्रियों और सेठों के अपमानजनक रवैय्ये के खिलाफ महात्मानों, सन्तों, सावकों, संन्यासियों और पवित्रा - मात्रों ने निरन्तर युद्ध किया है । यह युद्ध सफल नहीं हुआ । विद्रोहियों ने नवीन मूल्य व्यवस्था बनाई । बुद्ध और महावीर ने सारे पुराने ग्रंधविश्वासों, ग्रात्मा परमात्मा के प्रत्ययों को नकार दिया । उन्होंने 'सत्य' की समानान्तर और नवीन व्याख्याएं प्रस्तुत की । किन्तु जिन वुनियादी मानव मूल्यों के लिए वे लड़े, जिस भेदभाव रहित समाज व्यवस्था के लिए वे जिए उसे भुला दिया गया । एक व्यापक जीवन दृष्टि और मूल्य मीमांसा एक सम्प्रदाय वनती गई । देश में, विद्रोही और उत्कृष्ट सामाजिक चेतना के क्रान्तिकारी विचारक अपने अनुयायियों द्वारा पूज्य होकर रह गए । यह कितना ग्राश्चर्यजनक लगता है कि स्थापित अमानवीय व्यवस्था के विरुद्ध प्रचण्ड योगियों और निर्लिप्त सिद्धों के बावजूद, प्रत्येक सुधारक के नाम पर सिर्फ सम्प्रदाय रह गए | दम्भियों ने महापुरुषों के साथ विश्वासघात किया । यह महावीर शिक्षा के अनुसार कठोर वचन है किन्तु महावीर मूल्यों की सापेक्षता मानते थे । आज यह कहना बहुत आवश्यक हो गया है कि व्यवस्था विरोधी चितको और साधकों को, उनके आसपास एकत्र किए गए भ्रमों और अंधविश्वासों से निकाला जाए और भ्रमों के भीतर छिपी ऐतिहासिक और सामाजिक चेतना परक सच्चाइयों को ग्रन्वेपित किया जाए ।
महावीर को उनके नाम और मूर्ति के श्रासपास प्रधविश्वास या प्रलोभन से चिपटे लोगों से मुक्त करना होगा और उनकी शब्दावली के व्यापक संकेतों और मर्मो को टटोलना पढ़ेगा, तभी महावीर ग्राधुनिक मानव संवेदना और मुक्तचिन्तन एवम् सामाजिक मुक्ति के दीर्घ संग्राम में एक अप्रतिम व्यक्तित्व के रूप में दिखाई पढ़ेंगे। उनके बिम्व को तो लोग पूजते हैं पर उनकी 'आत्मा' या चेतना की विशदतात्रों और गहराइयों को नहीं समझते । वे महावीर को 'ग्रपना' मानते हैं जबकि महावीर, बुद्ध, कपिल, करणाद, नागार्जुन, सरहरण, कवोर - ये सव प्रत्येक प्रकार की संकीर्णतायों का प्रतिक्रमण कर जाते हैं । वे महान थे, उन्हें कुछ लोग घर कर नही रख सकते ।
सामाजिक चेतना का तत्त्व :
कर्म से ही कोई ब्राह्मण होता है ।' यह वाक्य भारतीय सन्दर्भ में क्रांतिकारी है । इस वाक्य को मान्यता मिल जाए तो समाज व्यवस्था ही बदल जाए किंतु जन्मजात श्रेष्ठता के धविश्वास के कारण केवल इसी देश में वैपम्य की सृष्टि नहीं होती बल्कि विदेशों में भी कमोवेश 'ग्रलगाव' के अनेक रूप हैं । 'वर्ण' या रंग का भेदभाव तो प्रसिद्ध ही है। पूंजी या संग्रह की शक्ति के आधार पर पाश्चात्य समाजों में लोगों के बीच बड़ीबड़ी खाइयां हैं । शिक्षा से ये जातीय अहंकार बढ़ते हैं, घटते नहीं । इन अहंकारों में चोट पहुँचाने की जितनी शक्ति होती है उतनी प्रभावों में भी नहीं होती । प्रभाव को श्रादमी बरदाश्त
१. उत्तराध्ययन, २५।३३