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भगवान महावीर की प्रासंगकिता
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वादी चिंतक थे और धर्म या मूल्य का निकप, मनुष्य को ही मानते थे। ऐसा धर्म जिसमें मनुष्य की स्थिति, काल, दिक् और जीवन के वास्तविक प्रसंगों पर विचार न हो, जो सिर्फ किसी अमूर्त विचार या धारणा के लिए लोगों को कष्टकर हो, वह धर्म नहीं हो सकता क्योंकि धर्म के सत्य, अहिंसा आदि मूल्यों की कसौटी मनुष्य है। मनुप्य ही मूल्यों या धर्मों का अन्वेपक और प्रयोक्ता है। अतएव मनुष्य से बड़ा कोई नहीं है । मूल्य का विचार मनुष्य को केन्द्र में रख कर ही हो सकता है ।
मूल्यों को सापेक्षता का सत्य अन्यत्र भी मिलता है। महाभारत में कृष्ण ने मूल्यों की सापेक्षता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था लेकिन सम्प्रदायवादियों ने उसे भुला दिया। यदि मूल्य और मनुष्य के हित में टकराहट हो तो मनुष्य का पक्ष लो, निरपेक्ष या अमूर्त मूल्य या धर्म का नहीं।
. 'महाभारत' में मूल्य द्वंद्व के लिए एक कथा आती है । वह इस प्रकार है :
युद्ध में युधिष्ठिर घायल होकर शिविर में लौटते हैं। दुःख और ग्लानि में वे अर्जुन के गांडीव की निन्दा करते हैं। अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि गांडीव के निंदक का वे वध कर देगे अतः वे इस पूर्वप्रतिज्ञा से बद्ध होकर युधिष्ठिर पर झपटते हैं। कृष्ण उन्हें रोकते हैं। उधर युधिष्ठिर की प्रतिज्ञा थी कि अर्जुन से अपमानित होने पर वे प्राण छोड़ देंगे। अतः वे घायल अवस्था में ही प्राण त्याग के लिए सन्नद्ध हो जाते हैं। विकट स्थिति है। इस स्थिति में धर्म क्या है ?.
कृष्ण धर्म का संबंध हित से स्थापित करते हैं । जिस कर्म, वचन या भावना से मनुष्यों का अहित हो वह अधर्म है। अर्जुन और युधिष्ठिर, दोनों जो कर्म करने जा रहे हैं, वह निरपेक्ष धर्म है, इसलिए त्याज्य है । निरपेक्ष धर्म लक्ष्य या प्रेरणावाक्य के रूप में रहे तो ठीक है किन्तु उस पर आचरण करते समय अनेक स्थितियों पर विचार आवश्यक है।
धर्म और मानवहित का सम्बन्ध महावीर भी स्थापित करते हैं। गांधीजी, निरपेक्षतावादी माने जाते हैं पर वस्तुतः वे भी सापेक्षतावादी थे, इसलिए अत्याचार की स्थिति में गांधीजी ने शक्ति प्रयोग को भी वैध भाना था। कश्मीर पर लुटेरों के आक्रमण के समय, भारतीय सेना - को प्रतिरक्षा के लिए भेजा था। महावीर सत्य और हित का सम्बन्ध इस प्रकार स्थापित करते हैं
सदा हितकारी सत्य बोलना चाहिए २ हिंसा पैदा करने वाला झूठ मत बोलो । ३
१. महावीर का तत्व-चिन्तन मात्र मनुष्य हित तक नहीं, प्राणीमात्र के कल्याण तक
व्याप्त था। --सम्पादक २. उत्तराध्ययन, १९२६ ३. दशवकालिक, ६।१२