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याधुनिक परिस्थितियाँ एवं भगवान् महावीर का संदेश
इस दृष्टि से हमे यह विचार करना है कि भगवान् महावीर ने ढाई हजार वर्षं पूर्व अनेकान्तवादी चिन्तन पर आधारित अपरिग्रहवाद एवं अहिंसावाद से संयुक्त जिस ज्योति को जगाया था, उसका आलोक हमारे आज अन्धकार को दूर कर सकता है या नहीं ? आधुनिक वैज्ञानिक एवं वौद्धिक युग में वही धर्म एवं दर्शन सर्व व्यापक हो सकता है जो मानव मात्र को स्वतन्त्रता एवं समता की आधारभूमि प्रदान कर सकेगा । इस दृष्टि से मैं यह कहना चाहूँगा कि भारत में विचार एवं दर्शन के धरातल पर जितनी व्यापकता, सर्वाङ्गीणता एवं मानवीयता की भावना रही है; समाज के धरातल पर वह नही रही है । दार्शनिक दृष्टि से यहां यह माना गया है कि जगत में जो कुछ स्थावर जंगम संसार है वह सब एक ही ईश्वर से व्याप्त है.
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ॐ ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्-- ईशावास्योपनिषद्
प्राणी मात्र को मित्र के रूप में देखने का उद्घोष यहाँ हुआ— मित्रस्य मा चक्षुपा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् । मित्रस्याहं चक्षुपा सर्वाणि भूतानि समीक्षे | मित्रस्य चक्षुपा समीक्षामहे ।
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यजुर्वेद
पंडित एवं विद्वान को कसौटी यह मानी गयी कि उसे ससार के सभी प्राणियां को अपने समान मानना चाहिये
"ग्रात्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः
समाज-दर्शन का विकास क्यों नहीं ?
यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि "श्रात्मवत् सर्वभूतेपु" सिद्धान्त को मानने पर भी यहां सामाजिक समता एवं शान्ति का विकास क्योंन हो सका ? मानव में परस्पर एक दूसरे को छोटा बड़ा मानने की प्रवृत्ति का विकास क्यों हुआ ? श्रत-दर्शन के समानान्तर समाज-दर्शन का विकास क्यों नहीं हो सका ?
उपनिपकार ने यह माना था कि जव ब्रह्म की इच्छा होती है तब सृष्टि का रचना होती है
इच्छा मात्र प्रभोः सृष्टिरति सृष्टो विनिश्चता : -- मांडूक्योपनिषद्, आगम प्रकरण ८
ब्रह्म को मूलभौतिक प्रपंचों का कारण मानने के कारण मानव की सत्ता उसके सामने अत्यन्त लघु हो जाती है तथापि सृष्टि की सत्ता सत्य प्रतिपादित हो जाने एवं उसकी उत्पत्ति का एक ही कारण मानने पर कम से कम "मानव" की दृष्टि में "सर्वात्मदर्शन" की