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आधुनिक परिस्थितियाँ एवं भगवान् महावीर का संदेश
मानवीय मूल्यों की स्थापना :
यदि हमें मानव के अस्तित्व को बनाये रखना है तो हमें मानवीय मूल्यों की स्थापना करनी होगी, सामाजिक सौहार्द एवं वंधुत्व का वातावरण निर्मित करना होगा, दूसरों को समझने एवं पूर्वाग्रहों से रहित मनःस्थिति में अपने को समझाने के लिए तत्पर होना होगा, भाग्यवाद के स्थान पर कर्मवाद की प्रतिष्ठा करनी होगी, उन्मुक्त दृष्टि से जीवनोपयोगी दर्शन का निर्माण करना होगा । आज वही धर्म एवं दर्शन हमारी समस्याओं का समाधान कर सकता है जो उन्मुक्त दृष्टि से विचार करने की प्रेरणा दे सके । शास्त्रों में यह बात कही गयी है केवल इसी कारण आज का मानस एवं विशेष रूप से बौद्धिक समुदाय एवं युवक उसे मानने के लिए तैयार नहीं है । दर्शन में ऐसे व्यापक तत्व होने चाहिये जो तार्किक एवं बौद्विक व्यक्ति को सन्तुष्ट कर सकें। आज का मानव केवल श्रद्धा, सन्तोष और अन्धी आस्तिकता के सहारे किसी वात को मानने के लिए तत्पर न होगा।
धर्म एवं दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिये जो प्राणी मात्र को प्रभावित कर सके एवं उसे अपने ही प्रयत्नों के बल पर विकास करने का मार्ग दिखा सके । ऐसा दर्शन नहीं होना चाहिए जो आदमी-आदमी के बीच दीवारें खड़ी करके चले । धर्म को पारलौकिक एवं लौकिक दोनों स्तरों पर मानव की समस्याओं के समाधान के लिए तत्पर होना होगा। प्राचीन दर्शन ने केवल अध्यात्म साधना पर बल दिया था और इस लौकिक जगत की अवहेलना हुई थी। आज के वैज्ञानिक युग में वौद्धिकता का अतिरेक व्यक्ति के अन्तर्जगत की व्यापक सीमाओं को संकीर्ण करने एवं उसके बहिर्जगत की सीमाओं को प्रसारित करने में यत्नशील है । आज के धार्मिक एवं दार्शनिक मनोपियों को वह मार्ग खोजना है कि मानव अपनी वहिमुखता के साथ-साथ अन्तर्मुखता का भी विकास कर सके । पारलौकिक चिन्तन व्यक्ति के आत्म विकास में चाहे कितना ही सहायक हो किन्तु उससे सामाजिक सम्बन्धों की सम्बद्धता समरसता एवं समस्याओं के समाधान मे अधिक सहायता नहीं मिलती है । आज के भौतिकवादी युग में केवल वैराग्य से काम चलने वाला नही है । आज हमें मानव की भौतिकवादी दृष्टि को सीमित करना होगा, भौतिक स्वार्थपरक इच्छाओं को संयमित करना होगा, मन की कामनाओं में परमार्थ का रंग मिलाना होगा । आज मानव को न तो इस प्रकार का दर्शन शांति दे सकता है कि केवल ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है तथा न केवल भौतिक तत्वों की ही सत्ता को सत्य मानने वाला दृष्टिकोण जीवन के उन्नयन में सहायक हो सकता है।
एक बार खलील जिब्रान ने कहा था "तुम यौवन और इसका ज्ञान एक ही समय प्राप्त नही कर सकते, क्योंकि यौवन जीने में अत्यधिक व्यस्त है, इसे जानार्जन का अवकाश नही और ज्ञान अपने स्वरूप की खोज में इतना मग्न है कि इसे जीने का अवसर नही" । आज यौवन और ज्ञान; भौतिकता और आध्यात्मिकता के समत्व की आवश्यकता है। इसके लिए धर्म एवं दर्शन की वर्तमान सामाजिक संदर्भो के अनुरूप एवं भावी मानवीय चेतना के निर्यामक रूप मे व्याख्या करनी है । इस संदर्भ में आध्यात्मिक साधना के ऋषियों