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________________ मानसिक स्वास्थ्य के लिए महावीर ने यह कहा २४७ कोहं च माणं च तहे व मायं लोभं च उत्थं अज्झत्थ दोसा । एयाणिवन्ता अरहा महेसी न कुब्वइ पावं न कार वेई ।। अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार अतरात्मा के भयंकर दोष हैं । इनका पूर्ण ! रूप से परित्याग करने वाले अर्हन्त महपि न स्वयं पाप करते हैं और न दूसरों से । करवाते है। इन भयंकर दोषों का परिणाम बताते हुए वे कहते हैं अर्हे वयन्ति कोहेण, माणेणं अहया गई । माया गहपडिग्घा ओ, लोहा ओ दुह ओ भयं ।। अर्थात् क्रोध से मनुष्य नीचे गिरता है, अभिमान से अधमगति को पहुंचता है, माया से सद्गति का नाश होता है, और लोभ से इहलोक तथा परलोक में महान् भय है । दुष्परिच्चया हमे कामा नो सुजहा अधीर पुरसेहिं । अहसंति सुवया साहू, जे तरन्तिः अतरे वाणेयाव । अर्थात् काम भोग बड़ी मुश्किल से छूटते है अधीर पुरुष तो इन्हें सहसा छोड़ ही नहीं सकते । परन्तु जो महाव्रतों जैसे सुन्दर व्रतों के पालन करने वाले साधु पुरुष हैं वे ही दुस्तर भोग समुद्र को तैर कर पार होते हैं, जैसे-वणिक समुद्र को। स्वस्थता की प्रक्रिया : विकृत मनों व्यापारों और कार्यों को हो पाप की संज्ञा दी गयी है । महावीर स्वामी मानसिक मूल्यों की हानिकारकता बताने के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य के मार्ग के रूप में सुन्दर व्रतों को पालन करने का निर्देश देते है । महावीर स्वामी तो व्यक्ति और समाज के रोगों की सुचारू चिकित्सा करने वाले महापुरुप थे । उन्होंने छह मानसिक और छह शारीरिक तपों का निर्देश कर मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की ओर दिशा निर्देश किया है । उनके कथन आज की भापा में, आज की शब्दावली में नहीं है, उनके समय की शब्दावली में है । किन्तु तनिक गहराई से विचार करते ही उनकी आज के युग के अनुकूल उपयोगिता समझ में आ सकती है । अणसणमूणोपरिया, भिक्खापरिया, रसपरिच्चायो। काम किलेसो संलीगयाय, बज्झो तवो होइ। अनशन, अनोदरी, भिक्षाचारी, रसपरित्याग, काम क्लेश और संलेखना ये बाह्य तप है। पापच्छित्तविणयो, वेयाच्चं तहेव सज्झाओ । __ झाणंच विउस्साग्गो, एसो अन्भिन्तरो तवो ।। प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग ये आभ्यन्तर तप है। आभ्यन्तर तप मानसिक स्वास्थ्य के अचूक उपाय है । जो व्यक्ति अपनी त्रुटियां को स्वीकार कर स्वयं स्फूति से दण्ड ग्रहण करता है पश्चाताप कर उन दोपों को न दोहराने
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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