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मनोविज्ञान के परिवेक्ष्य में भगवान् महावीर का तत्वज्ञान
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जो कर्म श्रात्मा के ज्ञान, दर्शन, वीर्य आदि गुरणों का घात करें, वे घाती कर्म कहे जाते है । ये चार प्रकार के हैं - ( १ ) ज्ञानावरणीय ( २ ) दर्शनावरणीय ( ३ ) मोहनीय और (४) अंतराय । जिन कर्मों से शरीर, प्रायु, सुख-दुःख ग्रादि मिले वे प्रघाती कर्म कहे जाते है । ये चार प्रकार के हैं | (१) वेदनीय (२) श्रायु (३) नाम और (४) गोत्र |
उपर्युक्त आठों कर्म व इनकी एकसौ अड़तालीस प्रकृतियां मनोविज्ञान के गूढ़ रहस्यों को प्रकट करती हैं ।
कर्म-फल :
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जिस प्रकार वीजवोया जाता है तो वह भूमि के भीतर कुछ समय तक वहां पड़ा रहता है, फिर फल देने के लिए श्रकुरित होता है, पीछे वृक्ष बनकर फल देता है । इसी प्रकार कर्म भी बंधने के पश्चात् कार्मारण शरीर में पड़ा रहता है । कुछ समय तक वहां निष्क्रिय पड़ा रह कर फिर अपना फल देने के लिए उदय होता है । कर्मबंध होने के पश्चात् जितने समय तक निष्क्रिय पड़ा रहता है उसे प्रवाधाकाल कहा जाता है । अवाधाकाल पूरा होने पर कर्म, जैसी वासना या कामना वीज के रूप में होती है वैसा ही फल मिलता है, ऐसी तन, मन, सुख-दुःख आदि स्थितियों का निर्माण करता है, अर्थात् कर्म के अनुरूप उसका फल या परिस्थिति का निर्माण होता है । और परिस्थिति के निमित्त से कर्म बंध होता है । इस प्रकार कर्म-बंध व फल का यह चक्र अनन्तकाल से चलता आ रहा है । कर्म के चक्र या ग्रंथि के भेदन का उपाय भगवान् महावीर ने संवर व निर्जरा तत्त्व रूप में बतलाया है ।
जिस प्रकार शरीर के विकार को रोग के रूप में बाहर निकालकर नष्ट करने की क्रिया प्रकृति द्वारा स्वतः होती है इसी प्रकार कर्म श्रात्मा का विकार है और उसका फल भोग के रूप में प्रकट कर, नष्ट करने की क्रिया प्रकृति द्वारा स्वतः होती है ।
भिप्राय यह है कि प्रारणी की जो कुछ स्थिति बनती है, वह उसके कर्मो का ही परिणाम है | अतः प्राणी अपनी ग्रनिष्ट स्थिति से छुटकारा चाहता है तो उसे चाहिये कि वह अपने अनिष्ट कर्मबंध के कारणों को छोड़े और संचित कर्मो को तप से क्षय करे । श्री हेनरी नाइट पीलर अपनी "प्रेक्टिकल साइकोलाजी' पुस्तक में कहते है कि जिस दुनिया में हम रहते हैं, वह हमारे विचारों के अनुरूप होती । जिस विचार को हम दीर्घ काल तक धारण करते है, वह वस्तु स्थिति में परिणित हो जाती है । यदि हम किसी परिस्थिति को बदलना चाहते है तो पहले हमें अपने विचारों को बदलना होगा ।
पाप और पुण्य तत्त्व :
फल भोग की अपेक्षा से कर्म दो प्रकार के हैं - ( १ ) अशुभ फल देनेवाले इनको 'पाप' कहा जाता है और ( २ ) शुभ फलदेने वाले, इनको 'पुण्य' कहा जाता है । प्राकृतिक नियम है कि फल वैसा ही मिलता है जैसा वीज बोया जाता है । कर्म क्षेत्र में भी यह नियम लागू होता है । जो जैसा करता है वह वैसा ही फल पाता है । बुरा करने वाले