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वैज्ञानिक और तकनीकी विकास से उत्पन्न मानवीय समस्याएं और महावीर
'दृष्टि' में जितना सम्यक्त्व प्रायेगा, चारित्र उतना ही उत्कृष्ट होगा । सवाल यह है कि भगवान् महावीर की उपलब्धियों को ग्राज के जीवन से क्यों जोड़ा जाय ?
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आज का सार्वभौम जीवन :
वस्तुतः प्राज का सार्वभौम जीवन परलोक से लोक की ओर, और लोक में भी समष्टि से व्यष्टि की ओर, और व्यष्टि में भी आत्मा से शरीर की प्रोर उत्तरोत्तर मुड़ता चला जा रहा है । शरीर की आवश्यकताएं सर्वोपरि श्रावश्यकता समझी जाती है और उसकी पूर्ति के लिए व्यावसायिक प्रतिस्पर्द्धा की ग्राग लगी हुई है । जीवन का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है जहां व्यावसायिक प्रतिस्पर्द्धा नहीं है, लेनदेन की सरगर्मी नहीं है । परिणामतः 'परिग्रह' की मात्रा बढ़ती जा रही है । हमारा सारा प्रयास वहीं केन्द्रित है । विज्ञान और तकनीकी प्रयास भी मानव की इसी वृत्ति की तुष्टि में संलग्न है । विज्ञान और तकनीकी प्रयासों की संभावनाएं चाहे जो हों, पर उनका विनियोग करने वाले मानव के हाथ 'परिग्रह' प्रेरित हैं—- फलतः वे प्रतिस्पर्द्धा में उनका उपयोग कर रहे हैं और शक्ति तथा सत्ता के प्रजन में युद्ध की विभीषिका खड़ी कर रहे हैं । इस भयावह परिणाम से यदि बचना है तो भगवान् महावीर के द्वारा ग्रादिष्ट महाव्रतों और व्रतों की ओर लौटना होगा और समझना होगा उनकी परमार्थ दृष्टि को ।
चन्द्रयान की यात्रा, बहिर्जगत् की यात्रा :
कहा जा सकता है कि ढाई हजार वर्ष पुराना समाधान वर्तमान संदर्भ में किस काम का ? बैलगाड़ी और चन्द्रयान का इतना बड़ा व्यवधान ! क्या वे तत्कालीन समाधान इस व्यवधान को पार कर सकेंगे ? इस विषय में स्पष्ट उत्तर यह है कि बैलगाड़ी से चंद्रयान की यात्रा वहिर्जगत की यात्रा है, महावीर के समाधान और उनकी मान्यताएं अंतर्जगत् की यात्रा के लिए हैं | अंतर्जगत् का सत्य शाश्वत और चिरंतन सत्य है—उसकी उपलब्धि के सोपान हैं— अस्तेय, अपरिग्रह, अहिंसा, सत्य और ब्रह्मचर्य । श्रौर इन सबके साथ उनकी श्रनेकान्तवादी दृष्टि | पांच महाव्रतों में से तीन निपेधात्मक अर्थात् पहले तीन किसी सत्तावान् के निषेध की अनिवार्य परिणति हैं । इन तीनों में भी महत्वपूर्ण है— हिंसा | हिंसा के निषेध से अनिवार्य फलित प्रचार है । हिंसात्मका वृत्ति के शेष रहते ही चौर्य और परिग्रह संभव है । यदि चौर्य और परिग्रह प्रनाकांक्षित हैं - तो फिर हिंसा किसलिए ? यह हिंसा कर्तव्यबुद्धया नहीं |
सम्यक् चारित्र का विस्फोट :
इसीलिए भगवान् महावीर ने पहले सम्यक् दर्शन, तब सम्यक् ज्ञान और फिर सम्यक् चारित्र की बात कही है । सम्यक् दर्शन, सम्यक् दृष्टि का ही नामान्तर है, जो 'सत्य' की ग्राहिका है । यही दृष्टि स्थिर और परिपक्व होकर 'सम्यक् ज्ञान' बन जाती है । सम्यक् चारित्र इसी का विस्फोट है— इसी की श्रनिवार्य परिणति है । सारा सुधार अध्यात्मवाद के अनुसार भीतर से बाहर की ओर होता है । महापुरुषों के चरित्र के अनुकरण से वाञ्छित को उपलब्धि नहीं होगी, प्रत्युत् 'सत्य' के दर्शन और ज्ञान से चारित्र की सुगंध स्वतः फूट