________________
वैज्ञानिकी और तकनीकी विकास से उत्पन्न मानवीय समस्याएं और महावीर
२१३
होते जा रहे हैं । आज व्यक्ति का सिरस्थ-यंत्र सोचता कुछ और है और 'धड़ अपनी विवशता में करता कुछ और है। निष्कर्प यह है कि आज का सारा वातावरण 'राहु' और 'केतु' के अकाण्ड ताण्डव से व्याप्त और विक्षिप्त है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह की जगह विरोधी वृत्तियों ने ले ली है। सर्वत्र हिंसा, असत्य, चौर्य, व्यभिचार तथा परिग्रह दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा है। संसार में शांति और सुख के निमित्त जितने सम्मेलन होते हैं-अशांति उतनी ही बढ़ती जा रही है। महाध्वंस के मेव विश्व के ऊपर गरज रहे हैं। भीतर अास्था के प्रभाव से वैचारिक द्वंद्व और अस्थिरता से अशांति और वाहर परमारराविक अस्त्रों, उद्जन वमों का भय । हर व्यक्ति तनाव, अकेलेपन, संत्रास तथा अातंक से ग्रस्त है। शक्ति और सत्ता अर्जन के प्रति प्रतिस्पर्द्धा भाव ने मानव के समक्ष समस्याओं का अवार पैदा कर रखा है। वाटरगेट काण्ड में जिन उपकरणों का प्रयोग विपक्षी के रहस्यात्मक कार्यों के ज्ञान के लिए किया गया है, उसके आलोक में प्रात्मरक्षा का कौनसा प्रयत्न गुप्त रह सकता है ? इस प्रकार उक्त विचारों के आलोक में न तो अध्यात्मवादियों का आत्मवाद सुरक्षित रह सका है और न उसके अनुरूप स्थापित जीवनमूल्यों में आस्था । फलतः समस्त प्राध्यात्मवादी ज्योतिःस्तम्भ हिल उठे हैं।
प्रसिद्ध चिंतक जनेन्द्र ने एक बार यह कहा था कि वे अपनी कृतियों में भारतीय अध्यात्ममूलक संस्कृति के घटक तत्वों को गर-बार इसलिए हिला देते हैं ताकि नए संदर्भ में नए चिंतन से उन्हें पुनः सुदृढ़ता प्रदान की जाय । ठीक यही वात आज अध्यात्म ज्योति भगवान् महावीर के वारे में भी कही जा सकती है। मानवता के ऊपर पाए हुए वर्तमान संकट से त्राण पाने के निमित्त, अंधकाराच्छन्न जोवनपथ को आलोकित करने के उद्देश्य से ऐसी प्राध्यात्मज्योतियों की मंच पर प्रतिष्ठा प्रावश्यक हो नहीं, अनिवार्य भी है।
विज्ञान की चमक और धर्माध्यात्म की मदप्रभता से जो संक्रमण आज दृष्टिगोचर हो रहा है, यह अाज ही नहीं है-इतिहास में अनेक बार आया है। कहा तो यह भी जाता है कि सदन के बगीचे के द्वार से बाहर निकलते हुए आदम और हौवा ने ही सबसे पहले कहा था कि वे संक्रान्ति के काल से गुजर रहे हैं। इस प्रकार इस संदर्भ में सर्वप्रथम समस्या है---यात्मवाद के स्थापन्न की । इसके अभाव में और सारी बातें वेबुनियाद हैं । आत्मवाद की प्रतिष्ठा :
आत्मवाद के विपक्ष में अनात्मवादी वैज्ञानिकों के कई तर्क हैं उनमें से पहला यह कि यात्मवाद प्रमाण सिद्ध नहीं। वह परम्परागत विश्वास पर प्राधृत है और अतर्क घोपित है। निस्संदेह प्रात्मवाद प्रमाणसिद्ध नहीं है । कारण, यात्मवादी मानते हैं कि जो प्रमाण सिद्ध है, अपनी सत्ता की सिद्धि में प्रमाण-सापेक्ष है, वह और चाहे जो हो, प्रात्मा नही है । आत्मवादी मानते हैं कि उसके लिए और कोई प्रमाण नहीं है, पर यदि अनुभव और अंत प्टि (बुद्धि से भी ऊपर की शक्ति) प्रमाण है तो उसके साक्ष्य पर प्रात्मा का अस्तित्व माना गया है और माना जा सकता है । वुद्धि से परे अंतर्दृष्टि या अंतर्बान की सत्ता विज्ञान भी मानता है। विश्व विख्यात वैनानिकों को ऊपर उठाने वाली यही अतष्टि है। अतः यह कहना : कि प्रात्मवाद 'निराधार है और केवल परम्परागत विश्वासों पर टिका हुअा है, ठीक नहीं।