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हिंसा के ग्रायाम : महावीर और गांधी
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लोगों ने कहा - "सत्य और अहिंसा व्यापार में नहीं चल सकते । राजनीति में उनकी जगह नहीं हो सकती ।" ऐसे व्यक्तियों को उत्तर देते हुए गांधी ने कहा
"ग्राज कहा जाता है कि सत्य व्यापार में नहीं चलता, राजकारण में नहीं चलता, तो फिर कहां चलता है ? अगर सत्य जीवन के सभी क्षेत्रों में और सभी व्यवहारों में नहीं चल सकता तो वह कौड़ी कीमत की चीज नहीं है । जीवन में उसका उपयोग ही क्या रहा ? सत्य और अहिंसा कोई ग्राकाश-पुष्प नहीं है । उन्हें हमारे प्रत्येक शब्द, व्यापार और कर्म में प्रकट होना चाहिये ।"
गांधीजी ने यह सव कहा ही नहीं, उस पर अमल करके भी दिखाया । उन्होंने प्राचीन काल से चली आती ग्राहसा की परम्परा को आगे बढ़ाया, उसे नया मोड़ दिया । उन्होंने जहां वैयक्तिक जीवन में ग्रहिंसा की प्रतिष्ठा की, वहां उसे सामाजिक तथा राजनैतिक कार्यों की आधार शिला भी बनाया । ग्रहिंसा के वैयक्तिक, एवं सामूहिक प्रयोग के जितने दृष्टान्त हमें गांधीजी के जीवन में मिलते हैं, उतने कदाचित् किसी दूसरे महापुरुष के जीवन में नहीं मिलते |
हिंसा हंसा की श्रांख-मिचौनी :
पर दुर्भाग्य से हिंसा और ग्रहिंसा की ग्रांखमिचौनी आज भी चल रही है । गांधीजी ने अपने ग्रात्मिक बल से हिंसा को जो प्रतिष्ठा प्रदान की थी, वह व क्षीण हो गयी है । हिंसा की तेजस्विता मन्द पढ़ गयी है, हिंसा का स्वर प्रखर हो गया है । इसी से हम देखते हैं कि आज चारों तरफ हिंसा का बोलबाला है । विज्ञान की कृपा से नये-नये प्राविकार हो रहे हैं और शक्तिशाली राष्ट्रों की प्रभुता का आधार विनाशकारी आणविक अस्त्र बने हुए हैं । हिरोशिमा और नागासाकी के नर-संहार की कहानी और वहां के असंख्य पीड़ितों की कराह ग्राज भी दिग्दिगन्त में व्याप्त है, फिर भी राष्ट्रों की भौतिक महत्त्वाकांक्षा तथा अधिकार - लिप्सा तृप्त नहीं हो पा रही है । संहारक ग्रस्त्रों का निर्माण तेजी से हो रहा है और उनका प्रयोग श्राज भी कुछ राष्ट्र वेधड़क कर रहे हैं ।
हिंसा की जड़ें गहरी हैं :
लेकिन हम यह न भूलें कि हिंसा की जड़ों बहुत गहरी हैं । उन्हें उखाड़ फेंकना सम्भव नहीं है । उसका विकास निरन्तर होता गया है और श्रव भी उसकी प्रगति रुकेगी नहीं । हम दो विश्वयुद्ध देख चुके हैं और ग्राज भी शीतयुद्ध की विभीपिका देख रहे हैं । विजेता र पराजित, दोनों ही अनुभव कर रहे हैं कि यह ग्रस्वाभाविक स्थिति अधिक समय तक चलने वाली नहीं है । यातायात के साधनों ने है और छोटे-बड़े सभी राष्ट्र यह मानने लगे हैं कि उनका सुरक्षित रह सकता है ।
दुनिया को बहुत छोटा कर दिया अस्तित्व युद्ध से नहीं प्रेम से
पर उनमें अभी इतना साहस नहीं है कि वर्ष में ३६४ दिन संहारक अस्त्रों का निर्माण करें और ३६५वें दिन उन सारे ग्रस्त्रों को समुद्र में फेंक दें ।
हसा व नये मोड़ पर खड़ी है और संकेत करके कह रही है कि विज्ञान के