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दार्शनिक संदर्भ
करवाने में उन्हें हिचक नही हुई । परशुराम हिंसा से हिंसा स्थापित करना चाहते थे । दोनों की हिंसा में निष्ठा थी, किन्तु उनका मार्ग सही नहीं था । उसमें हिंसा के लिए गुंजाइश थी और हिंसा से ग्रहिंसा की स्थापना हो नहीं सकती थी ।
बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय :
भगवान् बुद्ध ने एक नयी दिशा दी । समाज के हित को ध्यान में रख कर " बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” का घोप किया । उन्होंने कहा "वह काम करो, जिसमें वहुसंख्यक लोगों को लाभ पहुंचे, सुख मिले" । इससे स्पष्ट था कि उन्होंने मारक की मर्यादा को छूट दी, अर्थात् जिस कार्य से समाज के अधिकांश व्यक्तियों का हित साधन होता हो उसे उचित ठहराया, भले ही उससे ग्रल्पसंख्यकों के हितों की उपेक्षा क्यों न होती हो ।
महावीर और श्रागे बढ़े :
भगवान् महावीर एक कदम आगे बढ़े । उन्होंने सबके कल्याण की कल्पना को और अहिंसा को परम धर्म मानकर प्रत्येक प्राणी के लिए उसे अनिवार्य ठहराया उन्होंने कहा --
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" सव्वे पारणा पिया उया, सुहसाया, दुक्खपडिकूलताग्रप्पियवहा । पिय जीविणो जीवि उकामा, ( तम्हा) गातिवाएज्ज किंचरणं ॥
अर्थात् सव प्राणियों को आयु प्रिय है, सव सुख के अभिलापी हैं, दुःख सबके प्रतिकूल है, वध सवको प्रिय है, सब जीने की इच्छा रखते है, इससे किसी को मारना अथवा कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिये ।
हम देखते हैं कि महावीर से पहले भी अनेक धर्म-प्रवर्तकों तथा महापुरुषों ने हिंसा के महत्त्व एवं उसकी उपादेयता पर प्रकाश डाला था, लेकिन महावीर ने अहिंसा तत्त्व की जितनी विस्तृत, सूक्ष्म तथा गहन मीमांसा की, उतनी शायद ही और किसी ने की हो । उन्होंने अहिंसा को गुण स्थानों में प्रथम स्थान पर रखा और उस तत्त्व को चरम सीमा तक पहुंचा दिया । कहना होगा कि उन्होंने अहिंसा को सैद्धांतिक भूमिका पर ही खड़ा नहीं किया, उसे ग्राचररण का ग्रधिष्ठान भी वनाया | उनका कथन था -
सयं तिवायए पाणे, दुवन्नेहि धायए ।
हरतं वारणुजारगाइ, देरं वड्ढइ अप्परगो ॥
( जो मनुष्य प्राणियों की स्वयं हिंसा करता है. दूसरों से हिंसा करवाता है और हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है, वह संसार में अपने लिए बैर बढ़ाता है | )
हिंसा की व्याख्या करते हुए वे कहते है
तेसि अच्छरण जो एव, निच्चं होयव्वयं सिया । मरणता कायवक्केण, एवं हवदू संजय ||
( मन, वचन और काया, इनमें से किसी एक के द्वारा भी किसी प्रकार के जीवों की हिंसा न हो, ऐसा व्यवहार ही संयमी जीवन है । ऐसे जीवन का निरन्तर धारण ही ग्रहिता है 1 )