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अध्यात्म विज्ञान से ही मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा संभव
प्रकार के हैं— शारीरिक और मानसिक । शारीरिक विकास तो पशु-पक्षियों तक में भी देखा जाता है। खान-पान, स्थान यादि की सुविधा मिले और चिन्ता भय नहीं रहे तो पशुपक्षी भी बलवान और पुष्ट हो जाते हैं । लेकिन मनुष्य और पशु-पक्षियों के शारीरिक विकास का अंतर ध्यान देने योग्य है । क्या मनुष्य का शारीरिक विकास केवल खान-पान और रहन-सहन आदि की पूरी सुविधा और निश्चिंतता से ही सिद्ध हो सकता है ? मनुष्य के शारीरिक विकास के पीछे पूरा बुद्धि-योग हो, तभी वह समुचित रूप से सिद्ध हो सकता है अर्थात् मनुष्य का पूर्ण और समुचित विकास ( शारीरिक और मानसिक) व्यवस्थित और जागृत बुद्धि-योग की अपेक्षा रखता है । मानव-जाति की महत्वपूर्ण विशेषता यही है कि उसे सहज बुद्धि को धारण करने या पैदा करने की सामर्थ्य या योग्यता प्राप्त है, जो विकास का,
साधारण विकास का मुख्य साधन है । इसको विकसित करने के लिये प्राध्यात्मिक ग्रालोक की ओर अग्रसर होने की महती आवश्यकता है और उसकी साधना में मानव जीवन की कृतार्थता है | लेकिन मानसिक विकास के मूलावार वौद्धिक, ग्राध्यात्मिक चिन्तन की उपेक्षा कर संसार को ही सब कुछ माना जाये तो फिर विकास हो कैसे ? विना बीज के अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती है । ग्रांखों में पदार्थों को देखने की शक्ति न हो तो उन्हें देखा नहीं जा सकता है । इसीसे मानवीय मस्तिष्क में विकृति है और श्रात्मा रोगग्रस्त है । शाश्वत के प्रति ग्रास्थाहीनता ही विपम व्याधि है और विश्व की प्रशान्ति का कारण है ।
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अपना अस्तित्व और ग्रात्मा की निर्मलता को बनाये रखना, तथा ग्राध्यात्मिक पवित्रता को प्राप्त करना ही मानव जीवन का लक्ष्य है । ग्रात्मपरकता का सिद्धान्त ही उसके पृथक् ग्रस्तित्व का मूलाधार है । मानव केवल भौतिक संपत्ति, यहां तक कि ज्ञानार्जन से ही संतुष्ट नहीं हो सकता है । सच्चा ऐश्वर्य यात्मिक है, भौतिक नहीं है । उसका उद्देश्य श्रात्मसाक्षात्कार करना है । यही स्वतंत्रता है और असीम स्वतंत्रता में मुक्ति है ।
प्राध्यात्मिकता के प्रति लगाव के लिये देश और काल की लक्ष्मण रेखा नहीं खींची जा सकती है । प्राचीन और ग्रर्वाचीन जितनी भी सभ्यतायें और संस्कृतियां हैं, सभी ने अध्यात्म ज्ञान के प्रति श्रद्धा व्यक्त की है और किसी न किसी रूप में चरम अध्यात्मदशापन्न को उपासना का प्रतीक मान कर अपने प्राध्यात्मिक विकास का लक्ष्य रखा है। उन्होंने माना है कि आत्मा व्यक्ति का सबसे महत्वपूर्ण अंग है, क्योंकि उसका संबंध शाश्वत जगत् से है, नश्वर जगत् से नहीं है और उसका जीवन ग्रनन्त है ।
श्रात्मा की निधि को पहचानें :
महत्त्व है । ग्राज
भौतिक विज्ञान की दृष्टि में मनुष्य मूलतः एक बौद्धिक प्रारणी है, जो तर्कसंगत ढंग से सोच सकता है और उपयोगितावादी सिद्धान्तों के अनुसार कार्य कर सकता है । लेकिन चौद्धिक योग्यता की अपेक्षा ग्राध्यात्मिक ज्ञान और सहानुभूति का अधिक हम इतने दरिद्र हो गये हैं कि अपनी ग्रात्मा की निधि को पहचान ही अपने जीवन की दौड़धूप और कोलाहल में अपने अस्तित्व के अब बोधक स्वरों की ओर हम ध्यान नहीं देते । हम उन वस्तुओंों से अधिक परिचित है, जो हमारे पास हैं और उनसे कम, जो कि हम स्वयं हैं ।
नहीं सकते हैं ।