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अध्यात्म विज्ञान से ही मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा संभव • श्री देवकुमार जैन
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जीने की इच्छा :
सचेतन सृष्टि की प्रत्येक इकाई में जिजीविषा - मूलक वृत्ति स्वभावतः विद्यमान है । लेकिन जीवित रहना मात्र जिजीविषा नहीं है, अपितु सुख के साथ जीवित रहना ही जिजीविषा है । ग्रतः उसके केन्द्र में सुख प्राप्ति की ग्रभिलापा भी ग्रन्तनिहित है, और सुख के साथ जीने की अभिलाषा में प्रतिकूलता जन्य वेदना, दुःख से वचने की वृत्ति होना भी श्रवश्यंभावी है । इसीलिये संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और दु:ख से दूर भागता है । सुखी होना उसका परम लक्ष्य है । इसके लिये वह पूर्ण प्रयत्न करता है, साधनसामग्री जुटाता है, फिर भी लक्ष्य - सिद्धि में असफलता मिलती है तो उसका मूल कारण हैग्रात्म-विस्मृति |
ग्रात्म विस्मृति के कारण ही मैं कौन हूं, मेरा क्या स्वरूप है, मेरा क्या कर्तव्य है और कौन-सा मार्ग मेरे लिये श्रेयस्कर एवं सुखदायक है आदि बातों का उसे भान ही नहीं होता है । परिणामतः वह पर-पदार्थो में राग करता है और उनसे सुख पाने की चेष्टा करता है | लेकिन जब उनसे सुख प्राप्त नहीं होता है, तब वह उनसे द्वेप करने लगता है ।
राग आकर्षण का और द्वेष विकर्षण का सिद्धान्त है । राग से 'पर' में 'स्व' का ग्रारोपण किया जाता है एवं 'स्व' 'पर' बन जाता है । स्व-पर राग-द्वेप, श्राकर्षण विकर्पण के कारण सदैव संघर्ष ग्रथवा द्वन्द्व बना रहता है । ये दोनों ग्रन्योन्याश्रित हैं और इन दोनों के आश्रय से प्राणी चंचल होकर संसार में परिभ्रमण करता रहता है | सतत अभ्यास जन्य अज्ञान उसे वाह्य वस्तुनों में ग्रासक्त रहने वाला या वहिर्मुखी बना देता है । वह पर-पदार्थो की प्राप्ति-प्राप्ति या संयोग-वियोग में अपने को सुखी या दुःखी मानने लगता है ।
जीने की इच्छा केवल मनुष्य में ही नहीं, सुक्ष्मातिसूक्ष्म जीवों तक में भी पाई जाती है | वे भी जीवित रहना चाहते हैं । परन्तु उनकी दृष्टि वर्तमान देहिक - जीवन से आगे नहीं बढ़ती है और वे आगे या पीछे के जीवन के बारे में कुछ सोच हो नहीं सकते हैं । परिणामतः सुख-प्राप्ति और दुख निवृत्ति की अभिलापा होने पर भी वे हेयोपादेय का विवेक न होने अपने-अपने क्षेत्र एवं समय सम्बन्धी सुख-दुःख भोगते रहते हैं ।