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आधुनिक दार्शनिक धारणाएं और महावीर
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असत् की सत्ता नहीं हो सकती और सत् का अभाव-सर्वथा नाश नहीं हो सकता, तत्त्वदर्शी इन दोनों के अन्त के परिणाम को ज्ञान चक्षु से देखते हैं । नैयायिकों ने भी द्रव्य का लक्षण करते हुए कहा है-सगुणं सक्रियं सच्च द्रव्यम् । इसका तात्पर्य है कि द्रव्य स्थितिमान सत्तात्मक पदार्थ है उसका उत्पाद व्यय (नाश) और ध्रौव्य केवल परिणामी संस्कार है । अर्थात् द्रव्य का एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तन मात्र होता है और परिवर्तन रूप में वह तात्कालिक स्थिति में रहता है-सोना, सोने की कटक कुण्डल के रूप में परिणति तथा स्थिति । इसी सिद्धान्त को आज के वैज्ञानिक, पदार्थ सत्ता का सुरक्षात्मक सिद्धान्त तथा शक्ति का सुरक्षात्मक सिद्धान्त कहते हैं।
इसी प्रकार जैनों के अणु-सिद्धान्त और स्याद्वाद के सिद्धान्त आज के वैज्ञानिक युग में वैज्ञानिक परिभापानों पर कसे जा सकते हैं । अगुणों की विस्तृत व्याख्या एवं विवेचना जैनागमों में की गई है ! अणुओं की तुलना आज के एटम और एलेक्ट्रोन से की जा सकती है । जो स्थिति और गति एटम में है, वही स्थिति और गति जैन शास्त्रकारों ने भी चित्रित की है।
जैनियों के स्याद्वाद, अनेकान्तवाद, सप्तभंगी आदि नाम से प्रसिद्ध दार्शनिक सिद्धान्त तथा पदार्थ-व्याख्या-परक मान्यतायें आज के सापेक्षवाद के साथ मिलती हैं। तीर्थकर महावीर के गौतम को सम्बोधित करके कहे गए न्यावाद या सप्तभंगी के सिद्धान्त आईस्टीन के सापेक्षवाद के सिद्धान्त से सर्वथा एकात्मकता प्राप्त करते हैं। जैनागमों में वस्तु तत्व को समझने के लिए दो नयों का प्रतिपादन किया गया है-एक विनिश्चय नय और दूसरा व्यवहार नय । इन्हीं दो नयों से सम्पूर्ण सृष्टि तत्त्व का ज्ञान होता है। फिर ये नय भी सप्तभंगी द्वारा सात प्रकार के माने गए हैं। प्रत्येक वस्तु 'स्यादस्ति स्यान्नस्ति' सिद्धान्त के सापेक्ष ज्ञान की परिधि में आ जाती है। महावीर ने गौतम के प्रश्न पर गुड़ के वर्ण, रस आदि गुणों की व्याख्या इन्हीं नयों से की है। फिर इन नयों के सिद्धान्त को समन्तभद्र आदि विद्वानों ने विस्तृत व्याख्या के द्वारा सूक्ष्म रूप से प्रतिष्ठापित किया था।
जिस प्रकार इन नयों से वस्तुओं के अथवा द्रव्य तत्त्व के नित्यानित्यत्व, वर्ण, रस, गन्ध स्पर्णादि का विवेचन भगवान महावीर ने तथा दूसरे प्राचार्यों ने किया है उसी प्रकार से वह सर्वथा आज के वैज्ञानिक सापेक्षवाद के रूप में चित्रित किया जाता है। आज का वैज्ञानिक सापेक्षवाद अति नवीन तथा अनेक गुरुत्वाकर्पणवाद आदि वैज्ञानिक परम्परागों को पार करके स्थापित हुआ है, जबकि प्राचीनतम भारतीय सापेक्षता का सिद्धान्त अाज से कम-से-कम ढाई हजार वर्ष पूर्व का है ।
हीगेल के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद अथवा 'डाइलेक्टिक मैटरियलिज्म' की व्याख्या भी दार्शनिक पृष्ठभूमि पर भारतीय दर्शन के सिद्धान्त की कसौटी पर खरी उतरती है। द्वन्द्वात्मकवाद की तीन अवस्थायें :-वाद (थीसिस), प्रतिवाद (एंटी थीसिस) तथा संवाद (सिन्थीसिस) भारतीय दर्शन के वाद, प्रतिवाद और संवाद के परिणाम हैं या यों कहा जाय कि स्थिति, परिवर्तन (निषेधात्मक) और प्रतिफलन या विवर्त मात्र है । प्रत्येक वस्तु की अपनी एक सत्ता होती है, उसकी एक प्रतिपेधात्मक अथवा परिवर्तनात्मक या