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दार्शनिक संदर्भ
काल, स्वभाव आदि को अधिक प्रभावित करता है। उनको प्रभावित कर वर्तमान को अतीत से भिन्न रूप में प्रस्तुत कर देता है। कर्म सिद्धान्त और स्वतन्त्रता :
इमेन्युअल कांट ने इस विचार का प्रतिपादन किया है कि मनुष्य अपनी संकल्प-शक्ति में स्वतन्त्र है और इसीलिए कर्म करने और शुभाशुभ कर्मों के फल भोगने में भी स्वतन्त्र है, यदि वह कर्म में स्वतन्त्र नहीं तो वह कर्म करने और उनका फल भोगने के लिए उत्तरदायी नहीं होगा । भारतीय कर्मवाद का यह प्रसिद्ध सूत्र है कि अच्छे कर्म का अच्छा और बुरे कर्म का बुरा फल होता है । मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा फल भोगता है । इस सूत्र की मीमांसा से यह निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य नया कर्म करने में पुराने कर्म से बंधा हुआ है । वह कर्म करने और उसका बुरा फल भोगने में स्वतन्त्र नहीं है। यदि ऐसा है तो उसे किसी भी अच्छे या बुरे कर्म के लिये उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता । उसका वर्तमान अतीत से नियन्त्रित है । वर्तमान का अपना कोई कर्तव्य नहीं है। वह अतीत की कठपुतली मात्र है । कर्मवाद के इस सामान्य सूत्र ने भारतीय मानस को बहत प्रभावित किया, उसे भाग्यवाद के सांचे में ढाल दिया । उसके प्रभाव ने पुरुषार्थ की क्षमता क्षीण करदी। कर्म के उदीरण और संक्रमण का सिद्धान्त :
महावीर ने पुरुपार्थ के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । उनका पुरुपार्थवाद भाग्यवाद के विरोध में नहीं था । भाग्य पुरुषार्थ की निष्पत्ति है । जो जिसके द्वारा निष्पन्न होता है, वह उसके द्वारा परिवर्तित भी हो सकता है । महावीर ने कर्म के उदीरण और संक्रमण के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर भाग्यवाद का भाग्य पुरुषार्थ के अधीन कर दिया। कर्म के उदीरण का सिद्धांत है कि कर्म की अवधि को घटाया बढ़ाया जा सकता है और उसकी फल देने की शक्ति को मंद और तीव्र किया जा सकता है। कर्म के संक्रमण का सिद्धांत है कि असत प्रयत्न की उत्कटता के द्वारा पुण्य को पाप में बदला जा सकता है और सत प्रयत्न की तीव्रता के द्वारा पाप को पुण्य में बदला जा सकता है। मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा फल भोगता है-कर्मवाद के इस एकाधिकार को यदि उदीरण और संक्रमण का सिद्धांत सीमित नहीं करता तो मनुष्य भाग्य के हाथ का खिलौना होता । उसकी स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती । फिर ईश्वर की अधीनता और कर्म की अधीनता में कोई अन्तर नहीं होता। किन्तु उदीरण और संक्रमण के सिद्धांत ने मनुष्य को भाग्य के एकाधिकार से मुक्त कर स्वतन्त्रता के दीवट पर पुरुपार्थ के प्रदीप को प्रज्ज्वलित कर दिया। नियति और पुरुषार्थ को सीमा का बोध :
नियति को हम सीमित अर्थ में स्वीकार कर पुस्पार्थ पर प्रतिबन्ध का अनुभव करते है । पुरुपार्थ पर नियति का प्रतिबन्ध है, किन्तु इतना नहीं है, जिससे कि पुरुषार्थ की उपयोगिता समाप्त हो जाये । यदि हम नियति को जागतिक नियम (यूनिवर्सल ला) के रूप मे स्वीकार करें तो पुरुषार्थ भी एक जागतिक नियम है इसलिए नियति उसका सीमावोव करा मकती है किन्तु उसके स्वरूप को विलुप्त नहीं कर सकती। विलियम जेम्स ने लिखा