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आर्थिक संदर्भ
हैं । परन्तु धर्म का इतना संकीर्ण दृष्टिकोण है कि दान का अधिकतर अंश मन्दिर और भवन-निर्माण में काम आता है । इसके बाद सामूहिक भोज एवं भोजन-व्यवस्था में समाज का पैसा काम पाता है। परन्तु सांस्कृतिक-शैक्षणिक प्रवृत्तियों अथवा समाज के जरूरतमन्द भाइयों के लिए सामाजिक व्यय का शतांश भी काम नहीं आता । यह गहन विचार का समय है कि क्या समाज अपने धन का व्यय इसी प्रकार करता रहेगा अथवा अपने जरूरतमन्द भाइयों को भी सम्भालेगा ? दान केवल धार्मिक परिपाटी ही रहेगी या यह एक सामाजिक उत्तरदायित्व भी है ? इन प्रश्नों के उत्तर पर ही समाज का भविष्य निर्भर करता है । यदि हमने परिपाटी न बदली तो न समाज की आर्थिक गरीबी दूर होगी न आध्यात्मिक ही । इसके विपरीत विघटन एवं वैमनप्य की भावना फैलने की सम्भावना है।
सत्य कट भी होता है और अजीव भी । सत्य को पहिचानना ही सच्ची प्राध्यात्मिकता है और इसका अनुसरण ही आध्यात्मिक गरीवी हटाने का साधन है । आध्यात्मिक
और मानसिक गरीबी हटने पर आर्थिक गरीवी भी हट जायेगी। भगवान् महावीर का परिग्रह-परिमाण व्रत इस संदर्भ में विशेष प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है । आवश्यकता है उसे सम्पूर्ण सामाजिक चेतना के साथ अपनाने की।