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________________ १०६ आर्थिक संदर्भ hteMeri स्वामित्व तथा सम्पत्ति संचय है। महावीर ने इस सम्पत्ति-संचय को तृष्णा एवं वासना का विकार बताया तथा इसको मर्यादा एवं त्याग की सीमाओं में बांधने का निर्देश दिया। वहां मावर्स ने सामाजिक दृष्टि से सम्पत्ति संचय के मूल एवं इस पर लगाये जाने वाले प्रतिवन्ध पर विशद् विवेचन किया है। सम्पत्ति संचय को व्यक्ति एवं समाज दोनों के लिये एक विपम समस्या के रूप में देखा गया है । समाज के पूजीवादी अार्थिक ढांचे में सम्पत्ति का संचय अल्पतम लोगों के पास होता जाता है, इसका कारण मार्क्स ने श्रम-चोरी बताया है। समाजवादी अर्थ व्यवस्था का बुनियादी सिद्धान्त है कि सभी श्रम करें और विना श्रम के कोई भी रोटी नहीं पाये, जबकि पूंजीवादी समाज में श्रम चोरी का ऐसा सिलसिला चलता है कि चोर तो गुलछरें उड़ाते है और श्रमिक भूखों मरते हैं। यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि जो जितना श्रम करता है उतने श्रम का मूल्य उसे ही मिलना चाहिये, क्योकि मूल्य को पैदा करने वाला केवल मानव-श्रम ही होता है । दृश्य जगत् में एक भी उपयोगी पदार्थ ऐसा नहीं दिखाई देगा, जिस का मूल्य तो हो किन्तु जिसमें मानव श्रम न लगा हो । एक वृक्ष खड़ा है-उसकी लकड़ी उपयोगी हो सकती है किन्तु वह उपयोग में तभी आ सकेगी जब उसके लिये मानव-श्रम लगे-लकड़ी कटे, उसकी मेज कुर्सी या दूसरी उपयोगी चीज तैयार हो । एक श्रमिक ने यदि अपने श्रम से एक रुपये के मूल्य का उत्पादन किया है तो यह एक रुपया उसे ही मिलना चाहिये । यह मिलता है लब समाज में न्यायपूर्ण आर्थिक व्यवस्था होगी और वैसी स्थिति में एक या कुछ हाथों में सम्पत्ति संचय का अवसर ही नहीं पायगा । है सम्पत्ति संचय का मूल श्रम चोरी है जिसके लिये अनीति और अत्याचार पंदा होते. हैं | श्रम-चोरी कैसे होती है ? एक पूंजीपति ने एक कपड़े की मिल खोली जिसमें पांच हर्जार श्रमिक काम करते है । एक श्रमिक दिन भर में एक करघे पर बैठकर कल्पना करें कि दस रुपये के मूल्य का उत्पादन करता है, किन्तु मालिक उस मजदूर को दिन के पांच रुपये पगार ही देता है तो यह एक मजदूर से पांच रुपये की श्रम चोरी हुई। पांच हजार मजदूरों से एक दिन में पच्चीस हजार की श्रम-चोरी हुई । इस श्रम चोरी से लगातार एक मिल से एक वर्ष में और कई मिलों से कई वर्ष में सम्पत्ति का अपार संचय होता रहता है। जो चोरी करता है, वह फूलता है और जिसकी चोरी होती है, वह पतला होता जाता है । आज की भापा में इसी. श्रम-चोरी को शोपण कहते हैं और इसी आधार पर मार्स ने समाज को शोषक और शोषित के दो वर्गों में बांटा है तथा शोषण समाप्ति का यही उपाय बताया है कि वर्ग संघर्ष को भड़काया जाय । वर्ग संघर्ष के अनुसार शोपित वर्ग.शोपक वर्ग को समाप्त कर दे । किन्तु सम्पत्ति संचय की इस विपम समस्या का समाधान महावीर ने आत्म-जागृति की भूमिका पर निकाला। साध्य एक किन्तु साधनों का भेद : महावीर और मार्क्स के बीच दो हजार वर्ष से अधिक समय निकला किन्तु दोनों ने मानव समाज के लिये जो सामाजिक "लक्ष्य निर्धारित किये, उनमें आश्चर्यजनक समानता Painos Shrimes Namom
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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