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ग्रार्थिक-संदर्भ
उपभोग (एक वार उपभोग ) तथा परिभोग ( वार-बार उपभोग ) में ग्राने वाले पदार्थों की वह सूची निम्न है जिनके विषय में श्रावक-श्राविकाओं को मर्यादा लेने का निर्देश दिया गया है:
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१. आचमन
२. दन्त मंजन ३. फल ४. अभंगन ५. उबटन-सामग्री ६. स्नान सामग्री ७. वस्त्र ८. विलेपन-सामग्री ६. फूल १०. ग्रभूपरण ११. धूप अगर, लोवान वगैरह १२. पेय १३. खाद्य पदार्थ १४. उबाले हुए पदार्थ १५. सूप १६. विगय घी दूध दही आदि १७. शाक-सब्जी १८. मधुर पदार्थ १६. भोज्य पदार्थ २०. विविध जल २१. मुखवास सुपारी इलायची यादि २२. वाहन २३. उप-वाह्न २४. शयन सामग्री २५. सचित्त पदार्थ २६. द्रव्यपदार्थ |
इस परिग्रह परिमारण व्रत में ही श्रावक को ऐसे व्यापारों का निषेध भी किया है जो सामाजिक दृष्टि से हानिकर हैं । ये वाणिज्य कर्म १५ प्रकार के बताये गये हैं तथा जिनमें जंगल, खान, दांत, केश, जहर, वेश्यावृत्ति आदि के धन्धों का मुख्य उल्लेख है ।
सम्पूर्ण परिग्रह को न त्याग कर गृहस्थ में रहते हुए भी व्यक्ति को सामाजिक निष्ठा कैसे जागृत रहे इसका श्रावकों के व्रत निर्धारण में पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है ।
अपरिग्रहवाद का सामाजिक महत्त्व :
व्यक्ति परिग्रह का सम्पूर्ण या प्रांशिक परित्याग करे इसमें व्यक्ति के चरित्र -शोधन का लक्ष्य तो प्रमुख है ही, किन्तु इसका सीधा प्रभाव सामाजिक परिस्थितियों पर ही पड़ता है । जिस रूप में वैज्ञानिक दृष्टि से भी समाज - विकास का इतिहास चला है, उसमें अर्थ का स्थान चक्र वाहक के रूप में है तो आध्यात्मिक दृष्टि से भी उत्थान या पतन की स्थिति तभी बनती है जिस परिमारण में परिग्रह या उसके ममत्व पर नियन्त्रण अथवा अनियन्त्रण हो । सिद्धांत के मूल विन्दु में इस प्रकार विशेष अन्तर नहीं है । सम्पत्ति का सामाजीकरण इस दृष्टि से प्रभावशाली निदान सिद्ध हो सकता है ।
सम्पत्ति का स्वामित्व जव तक व्यक्तिगत होता है, व्यक्ति की तृष्णा और लालसा पर अंकुश लगाना कठिन होता है । सम्पत्ति के अपने पास संचय के साथ उसकी तृष्णा बढ़ती जाती है और वैसी तृष्णा कभी सीमाओं में नहीं रहती । असीमित तृष्णा ही अनीति और अत्याचार की जननी बनती है। एक सीमा तक व्यक्ति नीति के अनुसार अर्जन करना चाहता है किन्तु संचय उसकी नीति को खंडित कर देता है तो प्रति संचय उसे अपने साथियों के प्रति समाज में अति प्रचार करने को प्रलोभित करता है । अनीति और प्रत्याचार जितना बढ़ता है तव सवल का न्याय चलता है और निर्वल शोषण, दमन और उत्पीड़न की चक्की में पिसने लगता है । यह चक्की तब सामाजिक क्षेत्र में इस तरह चलने लगती है कि समाज की अधिकाधिक सम्पत्ति कम से कम हाथों में सिमटती चली जाती है और समाज के बहुसंख्यक सदस्य निर्धन और निर्वल बनते जाते हैं ।
इसी परिप्रेक्ष्य में अपरिग्रहवाद का सामाजिक महत्त्व | प्रकट होता है । मार्क्स ने इस