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आर्थिक संदर्भ
कि व्यक्ति का जीवन श्रम पर आधारित हो तथा सम्पत्ति का स्वामित्व समाज में निहित किया जाय । आर्थिक विपमता को मिटाने की दृष्टि से उनका मानना था कि सबसे बड़ी, वाधक स्थिति व्यक्तिगत स्वामित्व की है । व्यक्तिगत स्वामित्व ही स्वार्थ का जनक होता है तथा स्वार्थ मनुष्य को 'भूखा भेड़िया' बनाये रखता है । कम्यून्स की पद्धति पर मार्क्स का समाजवादी दर्शन आधारित था अतः उसका नाम' 'कम्यूनिज्म' पड़ा, जिसका हिन्दी . रूपान्तर साम्यवाद है।
मार्क्स ने अपने समाजवादी आर्थिक दर्शन के तीन सोपान बताये हैं। पहले सोपान का नाम उन्होंने समाजवादी सोपान दिया है जिस स्तर पर समाज में सभी अपनी शक्ति के अनुसार परिश्रम करे तथा परिश्रम के अनुसार पारिश्रमिक प्राप्त करें । जब तक समाज में सवको रोटी नहीं मिले तव तक किसी को भी मालपुआ खाने का अधिकार नहीं हो। इस स्तर पर से जव समाज ऊपर उठे तो वह साम्यवादी सोपान पर प्रवेश करेगा। इस स्तर पर सव शक्तिभर परिश्रम करेंगे, किन्तु लेगे अपनी आवश्यकता के अनुसार । जैसे कि एक श्रमिक को अन्न अधिक चाहिये तो एक प्राध्यापक को दूध अधिक चाहिये। तीसरे सोपान की कल्पना एक आदर्श सोपान के रूप में की गई है जिसे अराजकतावाद का नाम दिया गया है । अराजकतावाद की अवस्था में शक्ति भर श्रम किन्तु समान वितरण की प्रणाली प्रारम्भ हो जायगी तथा राज्य सूखे पत्ते की तरह खिर जायगा और मानव समाज स्वानुशासित हो जायगा।
इस समाजवादी दर्शन का मूलाधार मानव समता है । चाहे राजनीति का क्षेत्र हो अथवा अर्थ का या अन्य क्षेत्र हो-प्रत्येक मनुष्य के सामने विकास के समान अवसर एवं साधन उपलब्ध हो—इसे समाजवाद का मूल सिद्धान्त माना गया है। सफल समाजवादी व्यवस्था वही होगी जिसमें समग्र समानता के आधार पर प्रत्येक मनुष्य को उठने और बढ़ने की सुविधा प्राप्त हो । मानव-मात्र की समानता इस दर्शन का व्यावहारिक लक्ष्य है ।
व्यक्ति से समाज और समाज में व्यक्ति :
एक व्यक्ति एक संस्था की स्थापना करता है उसके संविधान एवं नियमोपनियमों की रचना करता है, फिर यदि वही व्यक्ति उसके संविधान को तोड़े तो क्या संस्था उसकी कृति होते हुए भी उसके अनुशासन-भंग को सहन करेगी ? राष्ट्रपति भी राष्ट्र के संविधान का उल्लंघन करने पर दंडित किया जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति द्वारा संगठित होने पर भी समाज की एक ऐसी विशिष्ट शक्ति बनती है जो व्यक्ति को नियंत्रित और अनुशासित रखती है। विज्ञान की आशातीत प्रगति एवं मानव सम्पर्क में समीपता आ जाने के कारण सामाजिक शक्ति अधिकाधिक प्रवल बनी है। जन-चेतना की जागृति भी इसका एक प्रमुख कारण है । व्यक्ति से समाज की ओर जाते हुए भी समाज में व्यक्ति की स्थिति को सन्तुलित बनाये रखना ही समाजवादी अर्थ व्यवस्था का मुख्य ध्येय होता है । व्यक्ति के स्वार्थ पर अंकुश लगाये विना समाज का हित साधन संभव नहीं होता। 'बहुजनहिताय' से ही 'सर्वजनहिताय' तक पहुंचा जा सकेगा।