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________________ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य | 1800090010 परिणमन करना परम भक्ति है । [ ८१ 100 . एकादशम निश्चयावश्यकाधिकार ( २० गाथा ) में आचार्यनेआवश्यकका अर्थ अवशपना या स्वाधीनता किया है । अतः कर्मरूपी परपदार्थोंके आधीन न रहकर निज गुणोंमें लीन होजाना ही स्वाधीनता है। यही वास्तविक मोक्षमार्ग है। इसी मार्गका ग्रहण करना प्रत्येक आत्मा के लिये परम आवश्यक है, वीतराग योगीश्वरका पर भावसे अवश होना अर्थात् उनका सर्वथा नष्ट कर देना ही आवश्यक कहलाता है । शुभाशुभ भावोंसे आत्मा के अतिरिक्त परपदार्थों या परभावोंके आधीन होना, छः द्रव्योंके गुण पर्यायका चिंतन, पुण्य पापरूप परिणामोंमें प्रवर्तन आदि रूप पराधीनताको त्यागकर आत्मस्वभावका ध्यान करना ही स्वाधीनता है । आवश्यक कर्म विना समस्त चारित्र भ्रष्ट और निष्फल है। { " द्वादशम शुद्धोपयोगाधिकार (२८ गाथा ) में आचार्यवरने यह: निरूपण किया है कि जैसे सूर्यका प्रकाश और आताप एकसाथ उपस्थित होते हैं वैसे ही केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपत प्रकाशमान होजाते हैं । अतः दर्शन और ज्ञान दोनों स्वपर प्रकाशक हैं । आत्मा स्वभावतः दर्शन ज्ञान मय है । समस्त मूर्तिक और अमूर्तिक द्रव्योंको नाना गुण पर्यायों सहित भले प्रकार जानना प्रत्यक्ष ज्ञान है । केवलीको इच्छाका अभाव होजाता है । अतः इच्छारहित देखना, जानना, बचन उचारना, तिष्ठना, विहार करना आदि कर्मबंधके कारण नहीं । केवलीके आयुकर्म पूर्ण होनेपर शेष अघातिया कर्म प्रकृतियों का स्वयं क्षय होजाता है और आत्मा लोकशिखरके अग्र भागमें जा
SR No.010161
Book TitleBhagavana Kundakundacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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