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________________ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य। [७७ थोक्षका कारण अन्तगत्मभावोंको धारणकर सम्यक्चारित्रका पालन करे इसीसे वह परमात्मपदको प्राप्त होकर मोक्षके अविनाशी आनन्दका लाभ कर सकता है और जन्म मरणके दुःखोंसे सदाके लिये मुक्त होजाता है। (१६) नियमसार। इस अध्यात्मज्ञानके ग्रन्थमें कुल १२ अधिकार और १८७ गाथायें हैं । प्रथम जीवाधिकार (१९ गाथा) में आचार्यवरने सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रयको नियम कहा है जो साक्षात् मोक्षमार्ग है। यही सारपना है। अतः नियमसारका अर्थ रत्नत्रयरूप, मोक्षमार्ग किया है। क्षुधा, तृषा, भय, क्रोध, राग, मोह, चिंता, जरा, रोग, मृत्यु. खेद, स्वेद, मद, रति, अरति, आश्चर्य, निद्रा, जन्म, आकुलता, इन अठारह दोषोंसे रहित और केवलज्ञान आदि परम ऐश्वर्यसे युक्त परमात्मा आप्त कहलाता है। पूर्वापर विरोध रहित शुद्ध और हितमिता आप्त प्रवचनको आगम कहते हैं । और आगम कथित गुणपर्याय सहित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह छः द्रव्य ही तत्वार्थ हैं । ऐसे आप्त, आगम और तत्वार्थका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है।। इन छः द्रव्योंमेंसे जीव द्रव्य चैतन्य स्वरूप है। उसके चैतन्य-, गुणके साथ वर्तनेवाले परिणामको उपयोग कहते हैं जो दर्शन और ज्ञानके भेदसे दो प्रकार है । अतींद्रिय, असहाय, केवलज्ञान आत्माका स्वभाव ज्ञान है.। सामान्य ज्ञान अर्थात् मति, श्रुत, अवधि और
SR No.010161
Book TitleBhagavana Kundakundacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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