SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७०] भगवान् कुन्दकुन्दाचाये।। ܕ ܢ ܙ ܝܙ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙ ܙܬܙ ܙ ܙ ܙ. ܙ ܙ ܙܕܙܕܝܙ ܙ ܙ ܙ क्रियाओंमें आसक्ति, दोषरहित प्रव्रज्या, द्विविध संयम, भूमिशयन, वस्त्रत्याग, परिषह सहन, जिनागमाध्ययन द्वादशानुप्रेक्षा चिंतन, सप्त तत्वों एवं नव पदार्थोका ज्ञान, विभिन्न गुणस्थानोंमें जीव स्थिति, नव विध ब्रह्मचर्यका पालन, अभ्यंतर भावशुद्धि, यथाजात द्रव्यलिंगकी धारणा, मूल और उत्तर गुणों में सावधानी यह सब अंतरङ्ग शुद्धिके कारण हैं। (१२) मोक्ष प्राभृत। आचार्यवरने १०६ गाथाओंमें मोक्ष प्राप्त सिद्ध आमाका वर्णन किया है । भावोंकी अपेक्षा आत्मा तीन प्रकार है । अर्थात् जो इन्द्रियजनित व्यवहारमें आत्मबुद्धि रखता है वह अहिरात्मा है। जिसे आत्म और अनात्म पदार्थोका विवेक है वह अन्तरात्मा है और जिसने काँका नाश करके अंतिम ध्येय प्राप्त कर लिया है वह परमात्मा है। ____ अतः भव्य प्राणियों का कर्तव्य है कि बहिरात्मभावको छोड़कर अन्तरात्मभावको ग्रहण करे, जो परम्परासे परमात्मपदका साधन है। अज्ञानतावश ही शरीरके साथ आत्मबुद्धि उत्पन्न होती है। शरीर तथा संसारके अन्य समस्त पदार्थ चाहे वे सजीव हों, अजीव हों या मिश्रित हो जीवात्मासे प्रत्यक्ष ही अलग और पृथक दीखते हैं। शुद्ध स्वरूप आत्मा तो कर्ममलादिसे भी भिन्न नितांत ज्ञानमय है। वास्तवमें तो आत्मा और परमात्मामें केवल इतना ही अंतर है जितना खानसे निकले हुये और तपाये हुये सोनेमें होता है। संसारी
SR No.010161
Book TitleBhagavana Kundakundacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy