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________________ ६६ ] 1 प्राकृतिक है, अतः वह स्थिरतापूर्वक ध्यान नहीं कर सकती । यही कारण है कि वह उस पर्यायसे मोक्ष पानेकी अधिकारिणी नहीं । भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य । Ins मुनियों और त्यागियोंको स्वाद रहित होकर स्वल्प भोजन लेना. चाहिये । किसी प्रकारकी हृदयमें इच्छा नहीं रखना चाहिये, क्योंकि इच्छाओंका सद्भाव समस्त क्लेशोंका बीज, और इच्छाओंका निरोध ही वास्तविक तपका मूल है । (१०) बोध प्राभृत । इसमें ६२ गाथाओं द्वारा आयेतन, चैत्यगृह, जिनप्रैतिमा, दर्शन, वीतराग मय जिनबिम्ब, जिनर्मुद्रा, आत्मार्थज्ञान, अर्हतदेव, 'तीर्थ, 'अर्हतस्वरूप और प्रेव्रज्याकी विस्तृत व्याख्या की गई है । जो महामुनि शुद्ध, संयमी, नि: कषाय, महाव्रती, सम्यक्ज्ञानी, ध्यानमग्न और आत्मविवेकी हैं वह आयतन हैं । वह शरीर जिसमें ऐसा शुद्ध आत्मा रहता है या समवशरण, जहां ऐसा महान् आत्मा औदारिक शरीर सहित साक्षात् बिराजमान हो, अथवा मंदिर जहां ऐसे शरीरधारी आत्माका प्रतिविम्ब स्थापित हो वह चैत्यगृह कहलाता है । जो तीर्थंकर देव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रय से युक्त हैं, जिनके अनंतदर्शन, ज्ञान, वीर्य, सुखरूप अनंत चतुष्टय विद्यमान हैं, जो संसार परिभ्रमणसे छूट चुके हैं और . आकारको अविनाशी आनंदस्वरूप हैं, 'चरम शरीरसे किंचित् न्यून घरें मुक्त स्थानमें स्थित हैं वे जिन हैं और उनकी निर्मथ (वस्त्राभूषण ܢܐ
SR No.010161
Book TitleBhagavana Kundakundacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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