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________________ ५८] भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य।। विकृत अवस्थाका परिहार करके तथा कर्ममलस स्वच्छ और निर्मल होकर अपनी वाभाविक निर्विकार अवस्थाको प्राप्त कर लेता है। ___अनंत चतुष्टय युक्त जीवात्मा अपनी इस जीवन्मुक्त ( अर्हत) अवस्थाकी समाप्तिपर मोक्षपद पालेता है, जो प्रत्येक आत्माका अंतिम लक्ष्य और मानवीय जीवनका ध्येय है। मुक्ति प्राप्त आत्मा सदाके लिये जन्म मरणसे छूटकर अजर अमर और अविनाशी होजाता है। अन्तमें आचार्यवरने मोक्षका लक्षण और मोक्षप्राप्तिके साधनोंका व्यवहार और निश्चयनयकी दृष्टिसे संक्षिप्त वर्णन किया है। - (६) प्रवचनसार। इस ग्रंथको वर्णित विषयोंकी अपेक्षासे तीन अधिकारों में विभक्त. किया गया है । ज्ञानाधिकारकी ९२, ज्ञेवाधिकारकी १०८ और चारित्राधिकारकी ७५ गाथायें हैं और इस प्रकार यह ग्रन्थ कुल. २७५ गाथाओंमें समाप्त हुआ है। सर्व .प्रथम आचार्यवरने पंचपरमेष्ठियोंको नमस्कार करके आत्मा ' और उसके गुणोंके विकासका वर्णन किया है। सराग चारित्र कर्म बन्धका कारण होनेसे हेय और विराग चारित्र मोक्षप्राप्तिका साधन होनसे. उपादेय है। आत्मस्वरूपके अनुकूल आचरण ही वस्तु स्वभाव होनेसे धर्म है। उद्वेग रहित आत्माके परिणामको समभाव कहते हैं अर्थात् वीतराग चारित्र ही आत्मस्वभाव या -आत्मधर्म है। जिस स्वभावसे आत्मा परिणमन करता है उस समय वह तद्रूप होजाता है। यह नियम है कि कोई द्रव्य विना पर्यायके परिणमन'
SR No.010161
Book TitleBhagavana Kundakundacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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