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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
- ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥
शुभ धूप परम . अनूप पावन, भाव पावन आचरौं । सब करमजलाय दीजे, बोर कर विनती करौंसम्मेगा
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो धूपं निर्यपा. मोति स्वाहा ॥७॥
वहु फल मंगाय चढ़ाय उत्तम, चारगतिसों निरवरौं। निहचै मुकतफल देहु मोकौं,जोर कर बिनती करौं।सम्मेष्टा ___ 'ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यः फलं निर्वपाभीति स्वाहा ॥ ८॥
जल गंध अक्षत फूल चरु फल, दीप धूपायन धरौं। 'द्यानत'करो निरभय जगततै,जोर कर विनती करौं।सम्मे॥
. ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ .
' अथ जयसाला। ..
सोरठा। श्रीचौवीसजिनेश, गिरिकैलासादिक नमों। तीरथमहाप्रदेश, महापुरुपनिरवाणते ॥१॥
चौपाई १६ मात्रा। ... नमों रिषभ कैलास पहारं । नेमिनाथगिरिनार निहारं ॥ वासुपूज्य चंपापुर बंदौं। सनमति पावापुर अभिनंदौं ॥२॥ वंदौं अजित अजितपददाता । वंदौं संभवभवदुखधाता ।। वंदौं अभिनंदन गणनायक । वंदौं सुमति सुमतिके दायक ॥३॥ वंदौं पदम मुकतिपदमाधर । वंदी सुपार्स आशपासा हर ॥ वंदौं चंदप्रभ प्रभुचंदा. बंदी सुविधिसुविधिनिधिकंदा ॥४॥ वंदौं शीतल अधतपशीतल । वंदों श्रियांसधियांसमहीतल ॥