________________
जैन - ग्रन्थ-माला |
१६७
क्षेत्राणि अत्र मम सन्निहितानि भवत भवंत । वपट् । गीता छंद ।
शुचि क्षीरदधिसम नीर निरमल, कनकभारोमें भरौं । संसारपार उतार स्वामी, जोर कर विनती करों ॥ सम्मेदगिरि गिरनार चंपा, पाचापुरि कैलासकौं । पूजों सदा चौवीसजिन निर्वाणभूमिनिवासकों ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
केसर कपूर सुगंध चंदन, सलिल शीतल विस्तरौं । भवपापको संताप मेटौ, जोर कर विनती करौं |सम्मे०॥२॥ ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो चंदन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
मोंतीसमान अखंड तंदुल, अमल भानंदधरि तरौं ।
नहरी गुनकरो हमको, जोर कर विनती करौ ॥ सम्में० ॥३ ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ शुभफुलरास सुवासवासित, खेद सब मनकी हरौं । दुखधाम काम विनाश मेरो, जोर कर विनती करौं॥सम्मे ॥४ ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो पुप्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
नेवज अनेकप्रकार जोग, मनोग धरि भय परिहरों ॥ यह भूखदूखन टारि प्रभुजी, जोर कर विनती करौं॥ सम्मे० ॥५ ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्या नैवेद्य निर्व पामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
दीपक प्रकाश उजास उज्जल, तिमिरसेती नहि डरों । संशय विमोहविभरम तमहर, जोरकर विनती करौं । सम्मे०६