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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
दान देय मन हरष विशेखै । इह भव जस परभव सुख देखें। जो तप तपै खपै अभिलाषा । चूरै करमशिखर गुरु भाषा । साधुसमाधि सदा मन लावै! तिहुँजगमोगि भोग शिव जावै॥५॥ निशदिन वैयावृत्य करैया। सौ निहचै भवनीर तिरैया ।। जो अरहतभगति मन आनै । सो मन विषय कषाय न जाना जो आचारजभंगति करै हैं। सो निर्मल आचार धरै है।। बहुश्रुतवंतभगति जो करई । सो नर संपूरन श्रुत धरई ।।७।। प्रवचनभगति करै जो ज्ञाता। लहै ज्ञान परमानंददाता ।। षटआवश्यं काल जो सांधै । सो ही रतनत्रय आराधै टा धरमप्रभाव करें जे ज्ञानी । तिन शिवमारग रीति पिछानी।। वत्सलअंग सदा जो ध्यावै । सो' तीर्थंकरपदवी पावै ॥६॥
. .. :: :: : . . . . दोहा.। . . . . . .. एही सोलहभावना, सहित धरै व्रत जोयं। .
देवइन्द्रनरवंद्यपद, 'द्यानत शिवपद होय ॥१०॥ . . ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध यादिषोडशकारणेभ्यः पूर्ण निर्वपामी०
(अर्ध के बाद विसर्जन भी करना चाहिये)
‘दशलक्षणधर्म पूजा। : : :
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.. . अहिल : . ..
उत्तम छिमा मारदव, आरजवभाव है। ...: सत्य.सौच संजमं तप त्यांग उपाव हैं:। ..
आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दश सार हैं। ...... चहुँगतिदुखतें कादि मुंकतकरतार हैं ॥१॥