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जैन-ग्रन्थ-संग्रह ।
होऊँ नहीं कृतघ्न कभी में द्रोहं न मेरे उर श्रावे ।
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गुणग्रहण का भाव रहे नित, कोई बुरा कहो या. अच्छा, लाखों वर्षो तक जीऊ या अथवा कोई कैला ही भय या लालच देने आवे ।
दृष्टि न द्वोषों पर जावे ॥ ६ लक्ष्मी मावे या जावे, l मृत्यु आज ही आ जावे ।
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तो भी न्यायमार्ग से मेरा कभी न पद डिगने
पावे ॥ ७ ॥
कमी
न घवरावे ।
नहि भय खावे ।
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अटवी से यह मन, दृढतर वन जावे । सहनशीलता दिखलावे. ॥ ८ ॥
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होकर सुखमें भग्न न फूले, दुखमें पर्वत- नदी - श्मशान - भयानक रहे घडोल - अकंप निरन्तर इष्टवियोग अनिष्टयोग में सुखी रहें. सर्व जीव जगत के कोई कमी न घवरादे । वैरि-पाप- अभमान छोड़ जग नित्य नये मंगल गावे । घर घर चर्चा रहे धर्मकी, दुष्कृत दुष्कर हो जायें । ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना मनुज जन्म-फल सर्व पार्श्वे nsn ईति भीति व्यापे नहि जग में, वृष्टि समय पर हुआ करे ! धर्मनिष्ठ होकर राजा मी न्याय प्रजा का किया करे। रोग-मरी-दुर्भिक्ष, न फैले, प्रजा शान्ति से जिया करे । परम अहिसा धर्म जगत में, फैल सर्वहित किया करे ॥ १० ॥ फैले प्रेम परस्पर जग में मोह दूर पर रहा करे । अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहि कोई सुख से कहा करे । बनकर सब 'युग-वीर हृदय से देशोन्नति रत रहा करें। वस्तु स्वरूप विचार खुशी से सब दुखं संकट सहा करें ॥११॥
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