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जैन ग्रन्थ-संग्रह |
छाया तनकी नाहीं सो होय । टमकार पलक लागे न कोय ॥६॥ नख केश वृद्धि ना होंय जास । ये दश अतिशय केवल प्रकाश ॥ farst हम बन्दे शोशनाय । भव भवके अघ छिनमै पलाय ॥७॥ ॐ ह्रीं केवलज्ञानजन्मदशातिशयसुशोभिताय श्रीजिनाय अर्ध नि० ॥
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चौबोला छंद ।
अब देवनकृत चौदह अतिशय, सो सुन लीजे भाई । सकल अरथमय मागधि भाषा, सब जीवन सुखदाई ॥ मैत्रीभाव सकल जीवनके, होत महा सुखकारी । निर्मल दिशा लसें सब ओरी, उपजें भानंद भारी ॥ ८ ॥ अरु निर्मल आकाश विराजत, नीलवरन तन धारी । षट् ऋतुके फल फूल मनोहर, लागे द्रमोंकी डारी । दर्पण सम सो धरनि तहाँकी, अति जिय आनंद पावे । froies मेदनि विराजे, क्यों कवि उपमा गावे ॥ ६ ॥ मन्द सुगन्ध वयारि वृष्टि, गन्धोदककी चहुँधाई । हरषमई - सब सृष्टि विराजे, आनंद मंगलदाई ॥ चरण कमल तल रचत कमल सुर, चले जात जिनराई । मेघ कुमाकृत गंधोदक, वरले अति सुखदाई ॥ १० ॥ च प्रकार सुर जय जय करते, सब जीवन मन भावे । धर्मचक्र चले आगे प्रभुके, देखत भानु लजावे ॥ दश विधि मंगलद्रव्य धरों, तहाँ देखत मनको मोहे | विपुल पुण्यका उदय भयो है, सब विभूतियुत सोहे ॥११॥ दोहा ।
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ये चौदह देवन सु कृत, अतिशय कहे बखान: ।
इन युत श्रीअरहंतपद, पूजों पद- सुख मान ||१२||
ॐ ह्रीं सुरकृत चतुर्दशातिशयसंयुक्ताय श्रीजिनाय अर्घनि० ॥ -
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