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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
आनन्द देन । भविजनके दाता भये एन || जय जिनने प्रभु का शरन लीन । तिनको संहाय प्रभुजी सो कोन ॥ ३ ॥ जय नाग नागनी भये अधीन । प्रभु चरणन लाग रहे प्रवीन । तजके सो देत स्वर्गे सु जाय ! धरनेद्र पद्यवति भये आय ॥४॥ जे चोर अंजना अधम जान । चौरी तज प्रभुको घरो ध्यान ॥ जे मृत्यु भयें स्वर्गे सु जाय । रिद्ध अनेक उनने सुपाय ॥५॥ में मंतिसागर इक सेठ जान ।'जिन, रविवृत पूजा करी ठान । तिनके सुत थे परदेश माहिं । जिन अशुभ कर्म काटे सु ताहि ॥६॥जे रविवृत पूजन करी शेठ । ताफलकर सबसे भई-भेंट | जिन जिनने प्रभुका शरन लीन । तिन रिद्धसिद्ध पाई नवीनं ॥ ७॥ जे रविवृत पूजा करहिं जेय । ते. सुख्य अनंतानन्त लेय॥ धरनेन्द्र पद्मवति हुय सहाय । प्रभु भक्ति जान ततकाल आय ॥ ८॥ पूजा विधान इहिं विध रचाय । मन वचन काय तीनों लगाय ॥ जो भक्तिभाव जैमाल गाय । सोही सुख सम्पति अतुल पाय ॥६॥ वाजत मृदंग धीनादि सार गावंत नाचत नाना प्रकार ॥ तन ननं नन नन नन ताल देत । सन नन नन.सुर भर सुलेत ॥१०॥ ता थेई थेई थेई पग धरत जाय । छम छम छम छम घुघरू बजाय ॥जे करहिं विरत इहिं भांत भांत । ते लहहिं सुख्य शिषपुर सुजात॥११॥ दोहा ॥ रविव्रत पूजा पावकी, करे भवक जन कोय । सुख सम्पति इहिं भव लहै, तुरतः सुरा पद होय ॥ अडिल्ल ॥ रविव्रत पार्श्व जिनेन्द्र पूज्य भव मन परे। भव भवके आताप सकल छिनमें टरें । होय सुरेन्द्र नरेन्द्र आदि पदवी लहै.। 'सुख सम्पति सन्तान अटल लक्ष्मी रहे. फेर सर्व विध पाय भक्ति प्रभु अनुसरें।नाना विध सुख भोग बहुरि शिव त्रियवरै॥
. इत्यादि आशीर्वादः।