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कोई धर्म के मार्ग से न अर्थ (द्रव्य) प्राप्त करना चाहता है और न इस मार्ग से अपनी कामनाएं पूरी करना चाहता है। अधिकतर देश अधर्मावलंवन की नोच-खसोट में लगे हैं। मुझे लगता है कि 'महाभारत' काल में भी कुछ आज की-सी ही स्थिति थी। यदि ऐसी हालत न होती तो वेदव्यास क्यों कहते कि धर्म मार्ग से ही प्राप्त द्रव्य और तृप्त इच्छाएँ वास्तविक है । ऐसे धर्म का पालन लोग क्यो नहीं करते? मैं यह वात हाथ उठा-उठाकर कह रहा हूँ, मगर कोई सुन नही रहा है।
उर्ध्व बाहुर्विरोम्येप नैव कश्चिच्छृणोति मे ।
धोदर्मश्च कामाश्च स धर्मः कि न सेव्यते ॥
श्रीमत् विजय लक्ष्मण सूरीश्वर जी महाराज ने 'आत्मतत्त्वविचार, मे इसी पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-को खूब स्पष्ट करके हमें समझाया है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए किल प्रकार कर्म कर धर्म का अर्जन किया जा सकता है। इस धर्म का अर्जन कर मोक्ष को भागी होनेवाली आत्मा ( जीव, हम सब मानव) के संबंध में भी नानाप्रकार का विवेचन कर उन्होंने गूढ़ रहस्य को सरल कर हमारे सामने रखा है।
धर्म वड़ा ही व्यापक तत्त्व है। धर्म ही व्यष्टितः मानव की श्रात्मा को, उसके जीवन को, मालव से बने समष्टि-समाज को, देश को, समन्न देशों-संसार को धारण किए हुए है। कहना तो यह चाहिए कि यह विश्वब्रह्मांड ही एक धर्म, एक नियम के आधार पर चल रहा है। पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश सभी एक धर्म का पालन कर चल रहे हैं। सूर्य, चंद्र, ग्रह, लक्षत्र आदि सभी एक नियम से बद्ध हो चलायमान है। इसी