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भूमिका
पूज्यपाद जैनाचार्य श्रीमद् विजयलक्ष्मणसूरीश्वरजी महाराज के 'श्रात्मतत्त्व विचार' ग्रंथ के संबंध में कुछ निवेदन करते हुए मैं सौभाग्य और गौरव का वोध कर रहा हूँ। ऐसे ही अवसरों पर हम बद्धजीव धर्मवारि मे मार्जन कर कुछ पापक्षय कर पाते है; ऐसा मेरा विश्वास है ।
श्राज हमारे जीवन और समाज की क्या विडंबना है कि, हम 'अर्थ' और 'काम' के पीछे वेहोश दौड़ रहे हैं और हमे धर्म तथा मोक्ष की कथाएँ सुनने की सुध ही नही है । हम भूल गए है कि, मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है और धर्म ही उसकी प्राप्ति का परम साधन ! 'अर्थ' और 'काम' पुरुषार्थ हैं अवश्यः किन्तु ये मात्र पार्थिव हैं। इनकी प्रवृत्ति होनी चाहिए, धर्म के साधन में, जो धर्म ही परम पुरुषार्थ मोक्ष तक, हमारी पापबद्धता की छिन्नता तक, हमें पहुँचाता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि, धर्म हमारे पुरुषार्थों में प्रधान साधन है - मोक्ष प्राप्ति का । अधर्म से प्राप्त अर्थ क्या हमारे काम का है ? धर्मपूर्वक पूरी की गई इच्छा ( काम ) क्या हमें सगति देगी ? नहीं ! तात्पर्य यह कि, धर्म से कमाया गया धन और धर्म मार्ग का पालन कर पूरी की गई कामना ही हमें सद्गति की ओर - मोक्ष-मुक्ति की ओर ले जायगी । किन्तु श्राज हमारा जीवन और समाज ऐसा हो गया है कि, इस रूप मे चिन्ता करनेवाले कम दिखाई पड़ते है । वर्तमान काल में सारे जगत् में अशांति, वैमनस्य, रक्तपात, विद्रोह, श्रादि क्यों दिखाई पड़ रहे हैं ?