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________________ ६७८ आत्मतत्व-विचार पावाप्रो विणिवत्ती, पवत्तणा तह य कुसल पक्खमि । विणयस्स य पडिवत्ती, तिन्नि वि नाणे समाम्पिति ॥ -~-पापकर्मों से निवृत्ति, कुशल पक्ष मे प्रवृत्ति और विनय की प्राप्ति ये तीन बातें ज्ञान से ही होती हैं। जैन-धर्म ज्ञान को दो प्रकार का मानता है-मिथ्याजान और सम्यकज्ञान । मिथ्याज्ञान से ससार-सागर नहीं तरा जा सकता, सम्यक् ज्ञान से तरा जा सकता है, इसलिए हर मुमुक्षु को सम्यकज्ञान की आराधना-उपासना करनी चाहिए। मिथ्याजानी का जान मिथ्याजान, यानी अज्ञान है; और समकिती का जान सम्यकज्ञान, यानी ज्ञान है। यहाँ जान की जो प्रशसा की गयी है, वह इस सम्यक्ज्ञान की ही है। कभी-कभी यह प्रश्न पूछा जाता है कि, 'जान तो पवित्र है, उसके 'मिथ्या' और 'सम्यक' ऐसे दो भेद कैसे हो सकते हैं। उत्तर यह है कि, पानी पवित्र होते हुए भी सर्प के मुँह में पड़कर क्या अपवित्र या जहरीला नहीं हो जाता १ वही बात यहाँ है। अच्छे शास्त्र पढ़ें तो भी मिथ्यात्वी के लिए उनका परिणमन मिथ्यात्व रूप में होता है, परन्तु मिथ्यात्वी के शास्त्र पढ़ें तो भी समकिती के लिए वे सम्यक्त्व-रूप से परिणमते हैं । सम्यकज्ञान की वृद्धि के लिए शास्त्रकारो ने आठ प्रकार का ज्ञानाचार बतलाया है। काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तह अनिण्हवणे । बंजण-अत्थ-तदुभये, अट्टविहो नाणमायारो ॥ ----ज्ञानाचार काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिद्भवता, व्यजनशुद्धि, अर्थशुद्धि और तदुभय शुद्धि-इन आठ प्रकारों का है।' यहाँ 'ज्ञान' शब्द से श्रुतजान समझना है, कारण कि अध्ययन अध्यापन उसीका संभव है। सर्वज्ञ-भगवंतों ने तत्त्व का जो स्वरूप बताया है,
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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