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________________ चौवालीसवाँ व्याख्यान सम्यक् ज्ञान महानुभावो! त्रिकालाबाधित अविच्छिन्न प्रभावशाली श्री जिनशासन में नवपदनी की महिमा बहुत बड़ी है; इसीलिए उसका नित्यनियमित आराधन किया जाता है । उसमें नमो अरिहंताणं और नमो सिद्धाणं ये दो पट देव के है, नमो पायरियाणं, नमो उवमायाणं और नमो लोए सवसाहणं ये तीन पद गुरु के है, और नमो दंसणस्स, नमो नाणस्स, नमो चारित्तस्स और नमो तवस्स ये चार पद धर्म के हैं। इस प्रकार उसमें सुदेव, सुगुरु और सुधर्म के तत्त्व समुचित रीति से सजाये गये है। — धर्म के चार पद हैं-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप । इनमे प्रथम दर्शन ( अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यक्त्व ) का सविस्तार विवेचन हो चुका है। अब क्रमप्राप्त दूसरे जानपद का कुछ विवेचन करना चाहते हैं, उसे आप एकाग्रचित्त होकर सुनें। एकाग्र चित्त होने के सम्बन्ध में यहाँ यह कह दूं कि, बहुत-से महानुभाव व्याख्यान सुनने तो आ जाते है; पर एकाग्रचित्त न होने से वे व्याख्यान में कही बातो को ग्रहण नहीं कर पाते। जब व्यक्ति विषय को ग्रहण ही नहीं करेगा तो भला वह उस पर चिन्तन-मनन क्या करेगा ? जिनागम में कहा है-'सवणे नाणे विन्नाणे-सद्गुरु-मुख से शास्त्र-श्रवण करने से जीवादिक तत्त्वों का ज्ञान होता है और उससे आत्मा को विशिष्ट रीति से जाननेवाले विज्ञान की प्राप्ति होती है। परन्तु, यदि यथार्थ-रूप में शास्त्र-श्रवण न करेंगे तो ज्ञान-विज्ञान की उत्पत्ति होगी कैसे ?
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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