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________________ पाप-त्याग ६१५ सत्सग-स्वाध्याय द्वारा वृद्धि करते रहने से विज्ञान, विशेष ज्ञान होता है, जिससे कि, पापकर्म का त्याग करने की वृत्ति होती है, अर्थात् विरतिके परिणाम जाग्रत होते हैं । 'ज्ञानस्य फलं विरत्तिः' ज्ञान का सार विरति यानी व्रत नियम की धारणा है । उपदेश सुनें और कोई व्रत- नियम या पच्चक्खाण न करें, तो समझें कि व्याख्यान श्रवण का, ज्ञान का फल ही नहीं मिला । व्याख्यान के अमुक भाग के बाद यथाशक्ति पञ्चक्खाण लेना प्राचीन जैन परम्परा है । 1 कुछ लोग कहते है कि, "पहली बात पापत्याग की नहीं, पुण्यवृद्धि की करनी चाहिए | आदमी ने चाहे जैसे पाप करके पैसा इकट्ठा किया हो; पर वह दीनदुखियों को दान दे, साधु-संतों की सेवा में लगाये तथा अन्य परोपकार के कार्य करे तो वह पाप धुल जाता है !" पर, यह कथन अज्ञानपूर्ण है । धर्मशास्त्र पाप से पैसा पैदा करके, दान-पुण्य करने के लिए कहते ही नहीं हैं । वे तो कहते हैं कि, धन कमाने में किसी प्रकार का अन्याय न हो, अनीति न हो, अधर्म न हो, इसका चराचर ध्यान रक्खो ! इस तरह कमाया हुआ धन थोड़ा भी होगा तो भी आप सुखी होंगे और उससे दान-पुण्य करेंगे तो उसका फल अनेक गुना मिलेगा । यहाँ यह स्पष्ट कर दें कि, किये हुए पाप और किये हुए पुण्य दोनों का फल भोगना पड़ता है । इसलिए, जिस आदमी ने अनेक पापस्थानकों का सेवन करके पैसा एकत्र किया हो, उसका फल उसे भोगना पड़ता है, और उसका दान करने से जो कुछ पुण्य प्राप्त होता है उसका फल भी उसे भोगना होता है। इसलिए पाप का त्याग अवश्य करना चाहिए । " एक लुटेरा श्रीमतों को लूट कर उसे गरीबों में बॉट देता है, तो यह धर्म है या पाप ? अगर आप इसे धर्म कहेंगे तो दारू के व्यापार को भी धर्म कहना पड़ेगा, कारण कि इसमे दारू बनाना पाप है, पर अनेक लोगो
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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