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________________ पापत्त्याग क्रोध-अर्थात् गुत्सा, कोप या रोष ! मान-अर्थात् अभिमान, अहकार, मद या गर्व ! माया- अर्थात् कपट, छल, दगा या लुच्चापन ! लोभ-अर्थात् तृष्णा, अधिक पाने की वृत्ति ! राग अर्थात् आसक्ति! द्वेप-अर्थात् अनगम, तिरस्कार ! कलह-अर्थात् कजिया, झगड़ा! अभ्याख्यान-अर्थात् मिथ्या दोषारोपण ! पैशुन्य-अर्थात् चाड़ी-चुगली, पीठ-पीछे दोषो का प्रकाशन ! रति-अरति-अर्थात् हर्ष-विषाद । परपरिवाद-अर्थात् परनिंदा, दूसरे की बुराई करना ! मायामृपावाद-अर्थात् मायापूर्वक मृषावाद | उसे व्यवहार में घोखाधड़ी या प्रतारणा करते हैं ! मिथ्यात्वशल्य--अर्थात् मिथ्यात्व रूपी पाप! पापस्थानों की इस सख्या में अपेक्षाविशेष से कमीवेशी हो सकती है, पर शास्त्रों में तथा व्यवहार में ये अठारह पापस्थानक ही प्रसिद्ध है। जगत् का कोई भी धर्म पाप करने के लिए नहीं कहता, अगर कहता है, तो वह धर्म नहीं है। धर्म का पहला काम पाप का निषेध करना है। जैन-शास्त्रों में बताया है कि 'पावकम्मणो अपणेसि ते परिरणाय मेहावी-बुद्धिमान को चाहिए कि, पापकर्म का स्वरूप जानकर उसके आचरण से बचे।' यह भी कहा है कि, 'पापकम्म नेव कुजा, न कारवेजा-पाप कर्म न स्वयं करे न औरो से करावें ।' सथारापोरिसी की जो गाथाएँ ऊपर दी गयी हैं, उनमें पापस्थानको को दुग्गह-निबंधणाह यानी 'दुर्गति का कारण' कहा है। बौद्धधर्म में भी 'सव्वपावस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा' आदि वचनों द्वारा पापकर्मों का निषेध किया गया है । वैदिक-धर्म में भी
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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