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________________ ફ श्रात्मतत्व-विचार प्रवृत्ति । मतलब यह कि, श्रुतज्ञान के आलम्बनपूर्वक चेतन और अचेतन पदार्थ में उत्पाद, व्यय, धौव्य, रूपित्व, अरूपित्व, सक्रियत्व, अक्रियत्व, आदि पर्यायों का भिन्न-भिन्न रूप से चिन्तन करना इस ध्यान का मुख्य विपय है । शुक्ल ध्यान की दूसरी मंजिल या दूसरा प्रकार है - एकत्व-वितर्कनिर्विचार । एकत्व माने अभिन्नता; वितर्क माने श्रुतज्ञान, और निर्विचार का अर्थ है - एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर, एक शब्द से दूसरे शब्द पर या एक योग से दूसरे योग पर चिन्तनार्थ कोई प्रवृत्ति न करना । तात्पर्य यह किं श्रुतज्ञान के आलम्बनपूर्वक मानसिक आदि किसी भी एक योग में स्थिर होकर द्रव्य के एक ही पर्याय का अभेद चिन्तन करना इस ध्यान का मुख्य विषय है । 8 जिसने पहले ध्यान का दृढ अभ्यास किया हो, उसे ही यह दूसरा ध्यानप्राप्त होता है । जैसे सारे शरीर में व्याप्त विष को मन्त्र आदि उपायों से डंक की जगह ही लाया जाता है, उसी तरह समस्त विश्व के अनेकानेक विषयो में भटकते हुए मन को इस ध्यान द्वारा एक ही विषय पर लाकर एकाग्र किया जाता है। जब मन इस तरह एक ही विषय पर एकाग्र हो जाता है; तब वह अपनी सब चंचलता छोड़कर शान्त हो जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि, आत्मा से लगे हुए घातिया कर्म नष्ट हो जाते हैं और केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। ऐसा व्यान बारहवे गुणस्थान में होता है । इस तरह जब शुक्ल ध्यान के दो प्रकार पूरे हो जाते हैं और दूसरे दो भाग बाकी रहते है, तब केवलज्ञान प्रकट हो जाता है और तेरहवाँ गुणस्थान प्राप्त हो जाता है । शुक्ल ध्यान की तीसरी मंजिल या तीसरा प्रकार है सूक्ष्म क्रिया - प्रतिपाती । जब सर्वज्ञता प्राप्त आत्मा योग निरोध के क्रम से अन्त में सूक्ष्म शरीर योग का आश्रय लेकर बाकी के सब योगों को रोक देता S
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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