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गुणस्थान
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चौथे गुणस्थान मे जीव को सम्यग्दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व-रूप विवेक प्राप्त होता है, परन्तु चारित्रमोहनीय कर्म के प्रबल प्रभाव के कारण वह विवेक क्रिया रूप में परिणित नहीं हो सकता। इस गुणस्थान में चारित्रमोहनीय कर्म का बल एक निश्चित परिमाण मे घट जाता है; इसलिए आत्मा जानी-समझी बात को क्रिया-रूप में लाने का प्रयत्न करती है।
इस गुणस्थान में जीव सब पापमय प्रवृत्तियों को नहीं छोड़ सकता, पर वह चेष्टा अवश्य करता है और किन्हीं पापप्रवृत्तियो को छोड़ देता है। शास्त्रीय भाषा मे उसे देशविरति कहते है।।
देशविरति में पहले सम्यक्त्व-ग्रहण बाद में श्रावक के बारह व्रत अगीकार किये जाते है। जो बारह व्रत अगोकार न कर सके, वह थोड़े करे और शेष की भावना रखे। बाद में ज्यों-ज्यों सयोग अनुकूल होते जायें, त्यों-त्यों शेष व्रतो को भी अगीकार करता रहे ।
श्रावक शब्द तो आप नित्य ही सुनते हैं, पर उसका अर्थ क्या आप जानते है अथवा उस पर विचार भी करते हैं । श्रावक शब्द 'श्रु' धातु से बना है, जिसका कि अर्थ 'सुनना' होता है। श्री अभयदेव सूरि ने स्थानागसूत्र की वृत्ति में उसका अर्थ इस प्रकार किया है 'शृणोति जिनवचनमिति श्रावक'--जो जिनवचन को सुनता है, वह श्रावक है । इसलिए, नित्य उपाश्रय मे जाना और गुरु महाराज को विधिपूर्वक वदन करके उनके मुख से धर्मोपदेश सुनना श्रावक का मुख्य कर्त्तव्य है। कितने ही कहते है कि, धर्म की बात तो पुस्तक पढकर भी जानी जा सकती है, उपाश्रय में जाने के लिए समय कहाँ है, पर जो गुरु के समीप जाकर गुरुवचन को नहीं सुनता उसके लिए भला श्रावक शब्द कैसे सार्थक होगा! ___ गृहस्थ के लिए सामान्य और विशेष दो प्रकार का धर्म बताया गया है। मार्गानुसारी के पैतीस बोल के अनुसार जीवन व्यतीत करना सामान्य