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________________ ४६८ आत्मतत्व-विचार ही कहाँ से आये ? उसमे जो कुछ विकास माना गया है, वह पुद्गलनिर्मित शरीर के अगोंपागो का माना गया है, इसलिए उसका हमारी मान्यताओ के साथ कोई मेल नहीं बैठता। विकासवाद को तो हम भी मानते है; पर अरिहन्त-निर्देशित विकासवाद तो आत्मा को भी स्पर्श करता है; आत्मा के गुणों को स्पर्श करता है और उसकी उत्क्रान्ति और अवनति दोनो पर विचार करता है। यदि आत्मा अच्छे विचार करे और अच्छे काम करता रहे, तो उसकी उत्क्रान्ति होती है और खराब विचार और खराब काम करे तो उसकी ___ अवनति होती है । तथ्य तो यह है कि, कभी-कभी नितान्त अधम अवस्था मे पड़ी हुई आत्मा उत्थान-पतन के अनेक चक्र अनुभव करने के बाद, आगे बढती है और अन्ततः मुक्ति प्राप्त करती है। उसका व्यवस्थित वर्णन हमें गुणस्थानों मे मिलता है, इसलिए वह विशेष रूप से समझने योग्य है। अन्य दर्शनों में भी आत्मविकास की विभिन्न अवस्थाएँ वतायी गयी हैं, पर उनमें गुणस्थानकों-सरीखा विषद् वर्णन नहीं मिलता, उनमें वैसा सूक्ष्मवर्णन नहीं है। हम तो सदा कहते हैं कि, आपको जो वस्तु भगवंत के शासन में से प्राप्त होगी, वह अन्यत्र नहीं मिल सकती। आम तो आम के वृक्ष से ही मिल सकता है, बबूल या वेर के पेड़ से भला वह क्योंकर मिलने लगा। __(५) देशविरति गुणस्थान अब हम पाँचवें गुणस्थान की चर्चा प्रारम्भ करते है। देशविरति में आयी हुई आत्मा की अवस्थाविशेप को देशविरति-गुणस्थान कहते हैं । यह गुणस्थान विरताविरत, सयतासयत या व्रताव्रत के रूप में भी पहचाना नाता है; कारण कि इसमें कुछ विरति कुछ अविरति है, कुछ संयम कुछ असयम है, कुछ व्रतीपना कुछ अवतीपना है।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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