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कर्मबन्ध और उसके कारणों पर विचार
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मिध्यादृष्टि को कर्म की निर्जरा कम होती है, सम्यग्दृष्टि को ज्यादा । मिथ्यादृष्टि को कर्म की निर्जरा अकाम, यानी समझ बगैर होती है; लेकिन सम्यग्दृष्टि को कर्म की निर्जरा सकाम, यानी समझपूर्वक होती है । मिथ्यादृष्टि पाप के उदय को घबराते हुए हाय-तौबा मचाते हुए भोगता है, सम्यग्दृष्टि पाप के उदय को बिना घबराये, शांति से भोगता है । सम्यग्दृष्टि जानता है कि, पूर्वकाल में मैंने इस कर्म को आमन्त्रित किया था; इसलिए वह आया है, अब इसे शाति से भोग लेना चाहिए ।
सम्यग्दृष्टि को आर्तध्यान कम होता है; चित्त में शांति रहती है और कुछ समभाव होता है, इसलिए उदय में आते हुए और सत्ता में रहे हुए कर्मों की निर्जरा होती है । जबकि मिथ्यादृष्टि को आर्तध्यान अधिक होता है, चित्त में शांति नहीं रहती और रागद्वेष की प्रबलता होती इसलिए नये कर्म ज्यादा चिकने बँधते हैं ।
सम्यग्दृष्टि थोड़े दुःख में ज्यादा कर्म काटता है, जबकि मिथ्यादृष्टि ज्यादा दुःख में थोड़े कर्म काटता है ।
दो प्रकार का सम्यक्त्व
सम्यक्त्व दो प्रकार का है - (१) स्थिर और (२) अस्थिर । क्षायिक सम्यक्त्व स्थिर है, आने के बाद कभी नहीं जाता। दूसरे सम्यक्त्व अस्थिर हैं । औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व आते हैं और जाते हैं । कभी मलिन विचार आयें और देव गुरु-धर्म से श्रद्धा उठ जाये, तब कहा जायेगा कि, सम्यक्त्व गया और मिथ्यात्व आ गया।
मनुष्य सम्यक्त्व की
भावना में आयुष्य बॉधेगा, तो देवगति का ही बाँधेगा और उसमें भी महर्द्धिक सौम्य प्रकृतिवाले देव का ही बॉधेगा । जबकि देव सम्यक्त्व में आयुष्य बाँधेगा तो मनुष्यगति का ही बाँधेगा, वह भी बहुत ऊँचे कुल में, सस्कारी कुटुम्ब में, धार्मिक वातावरण में