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आत्मतत्व-विचार
उक्त महाशय को हमारे इस स्पष्टीकरण से सन्तोष हुआ और वह कर्म के विषय में विशेष जानने के लिए आज व्याख्यान में उपस्थित हैं।
कर्मबन्ध के कारण अनादिकालीन हैं ___ आत्मा अनादि काल से है; कर्म भी अनादि काल से है, कर्मबन्ध भी अनादि काल से हैं और कर्मबन्ध के कारण भी अनादि काल से हैं । कारण के बिना कार्य होता ही नहीं। ___कर्मबन्ध के सामान्य कारण चार है-मिथ्यात्व, अविरत, कषाय और योग । कुछ लोग प्रमाद को भी कर्मबन्ध का सामान्य कारण बताते हैं, परन्तु वह अविरति और योग में आ जाता है। इसीलिए षडशीति नामक चौथे कर्मग्रन्थ में कहा है कि
'बंधस्स मिच्छ अविरह, कसाय जोगत्ति चउ हेउ ॥५०॥' कर्मबन्ध के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार हेतु हैं ।
कारणों का क्रम सहेतुक है कर्मबन्ध के इन कारणों-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग का क्रम सहेतुक है।
जब तक मिथ्यात्व रहता है, तब तक अविरति नहीं जाती, जब तक अविरति है, तब तक कषायें नहीं जाती, और जब तक कषायें नहीं जाती, तत्र तक योगनिरोध नहीं होता। इसीलिए, उपर्युक्त क्रम रखा गया है । गुणस्थानों का क्रम देखने पर यह बात और स्पष्ट हो जायगी। चोर्थ गुणस्थान में मिथ्यात्व का नाश होता है, छठे गुणस्थान में अविरति का, १ प्रमाद पर नीचे की गाया जैन श्रुत में प्रचलित है :
मज्ज विसय-कसाया, निहा विकहा च पंचमी भणिया ।
एए पंचपमाया, जीव पाडन्ति संसारे ॥ मद्य [ दारू वगैरह मादक पदार्थ ], विषय [ शम्दादिक ], कपाय, निद्रा और विकथा-ये पाँच प्रमाद जीव को ममार में डालते हैं ।