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अध्यवसाय
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अध्यवसायों की संख्या आत्मा के अध्यवसाय बटलते रहते है और नये नये पैदा होते रहते है; इसलिए उनकी सख्या का बहुत बड़ी होनी स्वाभाविक है । आकाश के तारो और पृथ्वी के रजकणो की तरह वे गिने नहीं जा सकते। उनके भेद -और स्थानक असंख्यात माने गये है।
अध्यवसाय न बदलते रहते, तो उन्नति तथा अवनति का अनुभव न होता, कर्मों की स्थिति का वैचित्र्य भी दिखलायी न देता।
अध्यवसाय किसको होते हैं ! प्रश्न-आत्मा निगोद में जडप्रायः अवस्था में होता है, तब उसे अध्यवसाय होते है क्या ?
उत्तर-आत्मा निगोद मे जड़प्रायः अवस्था में होता है, तब भी उसे अध्यवसाय होते है। अगर उसको अध्यवसाय न हो तो 'उसमें और जड़ में अतर ही क्या रहे ? अध्यवसायो के कारण तो उसका कर्मबन्धन चालू रहता है। एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय, चार-इन्द्रिय और पचेन्द्रिय जीवों में भी अध्यवसाय होते ही हैं। केवल वीतराग आत्मा को संकल्प-विक्ल्परूप अध्यवसाय नहीं होते।
प्रश्न-वनस्पति को भी अध्यवसाय होते हैं, इसका कोई प्रमाण ?
उत्तर-वनस्पति को भी अध्यवसाय होते हैं, ऐसा हमारे शास्त्र कहते हैं । यही बड़ा प्रमाण है । आप लौकिक प्रमाण चाहते हो तो वह भी प्राप्त हो सकता है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बोस ने प्रयोगो से सिद्ध करके दिखला दिया है कि, वनस्पति को भी, हमारी तरह हर्ष, शोक, भय, चिन्ता, आदि होती हैं और उनका उनके जीवन-व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है । लगन अध्यवसायों के बिना सभव नहीं हैं, इसलिए यह हनिश्चित है कि वनस्पति को भी अध्यवसाय होते हैं ।