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कर्मवन्ध
२८६ लेश्यावाला हो, तो उसे अनिकाचित कमबन्ध होता है । अनिकाचित-रूप से कर्म-बन्धन किया हो और बाद मे जीव के परिणाम बदल जायें, तो व्रत, नियम, तप, व्यान आदि द्वारा पहले बाँधे हुए अनिकाचित कर्मों की निर्जरा भी हो जाती है।
अनिकाचित-कर्मबन्ध भी तीन प्रकार का होता है-~-स्कृष्ट, बद्ध और निधत्त । जो कर्मबन्ध अति शिथिल हो वह स्पृष्ट; शिथिल हो वह बद्ध और कुछ गाढ़ हो वह निधत्त कहलाता है । सुइयों के दृष्टान्त से यह बात अधिक स्पष्ट हो जायेगी।
सुइयों का ढेर पड़ा हो, उस पर हाथ रखें तो वे बिखर जाती है । इसी प्रकार कमों का बन्धन अति-शिथिल हो और सामान्य पश्चात्ताप आदि से टूट जाय, उसे स्पृष्ट कर्मबन्ध जानना चाहिए ।
सुइयाँ डोरे में पिरोई हुई हों तो उनके निकलने में कुछ देर लगती है। इस तरह जिस कर्मबन्धन के तोड़ने में कुछ देर लगे विशेष आलोचना आदि से टूटे, बद्ध-कर्मबन्ध जानना चाहिए।
जो सुइयाँ डोरे में पिरोई हो मगर उलझ गयी हो, उन्हें अलग करने मे श्रम करना पड़ता है, उसी तरह जो कर्मबन्धन गाढ हो और जिसे तोड़ने में तदापि विशिष्ट अनुष्ठान करना पड़े, उसे निधत्त-कर्म जानना चाहिए।
जिन सुइयो को कस-कस कर बाँध कर गट्ठा बना दिया गया हो तो वे किसी तरह अलग नहीं हो सकी, उसी प्रकार जो कर्मबन्धन अति गाढ हो और जिनका फल भोगे विना छुटकारा ही न हो, उसे निकाचितकर्मबन्ध जानना चाहिए। ___अशुभ कर्मों का निकाचित-बंध हो, तो जीव को बहुत प्रकार की यातनाएँ सहन करनी पड़ती है। इसलिए उससे बचना चाहिए । यह याद रखना चाहिए कि जो कर्म हँसते-हँसते बाँध लिए जाते हैं, वे रोते-रोते भी नहीं छूटते । धर्मधारण करने से पूर्व श्रेणिक
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