SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म की शक्ति २७१ राजा था, मैंने भाले से एक पुरुष को मारा था । उस कर्मविपाक से मै आज कॉटे से विद्व हुआ हूँ ।" तात्पर्य यह कि टीर्घकाल के पश्चात् भी कर्म अपना फल देते है । उनकी शक्ति अमोघ है । अकर्म की शक्ति को किस तरह तोड़ा जाये ? यह आपको बतलाते है । दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त होता है, यह नीति व्यवहार में प्रचत है । आत्मा का दुश्मन कर्म है और कर्म का दुश्मन धर्म है, इसलिए वह हमारा मित्र है । धर्माराधन करने से हमारा उद्धार हो सकता है । जैसे लोहे को सोने में परिणत करने के लिए उसका पारसमणि से स्पर्श कराना पड़ता है, उसी प्रकार आत्मा के लिए धर्माराधन करना अनिवार्य है । जैसे आग पर रखे हुए बरतन का पानी कम होता जाता है, वैसे ही धर्म की आराधना से कर्म की शक्ति कम होती जाती है और अन्त मे समाप्त हो जाती है । धर्माराधन से कर्मों की चिकनाहट हटा दो, तो फिर वे आप से नहीं चिमट सकेंगे । आप अनादिकाल से भौतिक सुखो की आराधना करते आये है, अब धर्म की आराधना करें, देवगुरु की भक्ति करें और कर्मों को तोड़ने की चेष्टा करें । कर्मबन्धन टूट जाने पर धर्माराधन की आवश्यकता नहीं रहती । जैसे लाख रुपये की इच्छा वाले को लाख की प्राप्ति हो जाने पर परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं रहती । पानी का घड़ा भरना है, तो उसके भरने तक ही मेहनत करनी है। इसी प्रकार कर्मों के नष्ट हो जाने तक ही धर्म की आराधना करनी है । I हम इस भव मे कर्मों को पूर्णतया न काट सके, तो उन्हें ढीला तो कर ही देंगे । ढीले कर्मों का फल कम भोगना पड़ता है । ढीले किये हुए
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy